फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ – भारतीय उपमहाद्वीप के एक विख्यात पंजाबी शायर थे जिनको अपनी क्रांतिकारी रचनाओं में रसिक भाव (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्म, ग़ज़ल लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी (तरक्कीपसंद) दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्हें नोबेल पुरस्कार के लिए भी मनोनीत किया गया था। फ़ैज़ पर कई बार कम्यूनिस्ट (साम्यवादी) होने और इस्लाम से इतर रहने के आरोप लगे थे पर उनकी रचनाओं में ग़ैर-इस्लामी रंग नहीं मिलते। जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत–पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा‘।
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं,
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना मांगेंगे।
वो सेठ व्यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड,
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा मांगेंगे।
जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में कत्ल हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला मांगेंगे।
जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगडे मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बांट बराबर खायेंगे।
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मांगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया मांगेंगे।
~ फैज अहमद ‘फैज’
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