आज की रात बहुत गर्म हवा चलती है‚ आज की रात न फुटपााथ पे नींद आएगी‚ सब उठो‚ मैं भी उठूं‚ तुम भी उठो‚ तुम भी उठो कोई खिड़की इसी दीवार में खुल जाएगी। ये जमीं तब भी निगल लेने को आमादा थी‚ पांव जब टूटती शाखों से उतारे हम ने‚ इन मकानो को खबर है‚ न मकीनों को खबर …
Read More »आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे – नरेंद्र शर्मा
आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आज से दो प्रेम योगी अब वियोगी ही रहेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? सत्य हो यदि‚ कल्प की भी कल्पना कर धीर बाँधूँ‚ किंतु कैसे व्यर्थ की आशा लिये यह योग साधूँ? जानता हूं अब न हम तुम मिल सकेंगे! आज के बिछुड़े न जाने कब मिलेंगे? आयेगा मधुमास फिर …
Read More »आज का दिन – रविन्द्र भ्रमर
आज का यह पहला दिन तुम्हे दे दिया मैंने आज दिन भर तुम्हारे ही ख्यालों का लगा मेला मन किसी मासूम बच्चे सा फ़िर भटका अकेला आज भी तुम पर भरोसा किया मैंने आज मेरी पोथियों में शब्द बन कर तुम्ही दिखे चेतना में उग रहे हैं अर्थ कितने मधुर तीखे जिया मैंने आज सारे दिन बिना मौसम घनी बदली …
Read More »आज ही होगा – बालकृष्ण राव
मनाना चाहता है आज ही? तो मान ले त्यौहार का दिन आज ही होगा। उमंगें यूं अकारण ही नहीं उठतीं, न अनदेखे इशारों पर कभी यूं नाचता मन; खुले से लग रहे हैं द्वार मंदिर के बढ़ा पग, मूर्ति के श्रंगार का दिन आज ही होगा। न जाने आज क्यों दिल चाहता है स्वर मिला कर अनसुने स्वर में …
Read More »हम ने देखा है
बेजुबान पत्थर पे लदे है करोडो के गहने मंदिरो में, उसी देहलीज पे एक रूपये को तरसते नन्हे हाथो को देखा है। सजाया गया था चमचमाते झालर से मस्जिद और चमकते चादर से दरगाह को, बाहर एक फ़कीर को भूख और ठंड से तड़प के मरते देखा है। लदी हुई है रेशमी चादरों से वो हरी मजार, पर बहार एक …
Read More »आगे गहन अंधेरा है – नेमीचन्द्र जैन
आगे गहन अंधेरा है मन‚ रुक रुक जाता है एकाकी अब भी हैं टूटे प्राणों में किस छवि का आकर्षण बाकी? चाह रहा है अब भी यह पापी दिल पीछे को मुड़ जाना‚ एक बार फिर से दो नैनों के नीलम–नभ में उड़ जाना‚ उभर उभर आते हैं मन में वे पिछले स्वर सम्मोहन के‚ गूंज गये थे पल भर …
Read More »रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद – रामधारी सिंह दिनकर
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद, आदमी भी क्या अनोखा जीव है! उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता, और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है। जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ? मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते। आदमी का स्वप्न? …
Read More »आदमी का आकाश – राम अवतार त्यागी
भूमि के विस्तार में बेशक कमी आई नहीं है आदमी का आजकल आकाश छोटा हो गया है। हो गए सम्बन्ध सीमित डाक से आए ख़तों तक और सीमाएं सिकुड़ कर आ गईं घर की छतों तक प्यार करने का तरीका तो वही युग–युग पुराना आज लेकिन व्यक्ति का विश्वास छोटा हो गया है। आदमी की शोर से आवाज़ नापी जा …
Read More »आ रही रवि की सवारी – हरिवंश राय बच्चन
नव-किरण का रथ सजा है, कलि-कुसुम से पथ सजा है, बादलों-से अनुचरों ने स्वर्ण की पोशाक धारी। आ रही रवि की सवारी। विहग, बंदी और चारण, गा रही है कीर्ति-गायन, छोड़कर मैदान भागी, तारकों की फ़ौज सारी। आ रही रवि की सवारी। चाहता, उछलूँ विजय कह, पर ठिठकता देखकर यह- रात का राजा खड़ा है, राह में बनकर भिखारी। आ …
Read More »अंतर – कुंवर बेचैन
मीठापन जो लाया था मैं गाँव से कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रह कर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ …
Read More »