Kunwar Bechain

कुंवर बेचैन, 1 जुलाई 1942 को उत्तर प्रदेश के ग्राम उमरी ज़िला मुरादाबाद में जन्मे कुंवर बहादुर सक्सेना उर्फ क़ुँअर बेचैन का बचपन चंदौसी में बीता। शिक्षा: एम. काम., एम. ए., पीएच. डी.। आपने ग़ाज़ियाबाद के एम एम एच महाविद्यालय में हिन्दी विभागाध्यक्ष के रूप में अध्यापन किया। आज के दौर में आपका नाम सबसे बड़े गीतकारों तथा शायरों में शुमार किया जाता है। आपके मुक्तक, ग़ज़लियात, गीतांश और अशआर रोज़ाना मुशाइरों तथा कवि-सम्मेलनों के संचालन में प्रयोग किए जा रहे हैं। ग़ज़ल के व्याकरण पर आपकी विशेष पकड़ है। गीत, नवगीत और ग़ज़ल जैसी विधा को आपने न केवल साधा है अपितु नई पीढ़ी को इन जटिल विषयों से जोड़ने के लिए हिन्दी साहित्य में महती कार्य भी किया है। 7 गीत संग्रह, 12 ग़ज़ल संग्रह, 2 काव्य संग्रह, एक महाकाव्य तथा एक उपन्यास के अतिरिक्त अनेक पत्र-पत्रिकाओं, वेब पृष्ठों, संपादित ग्रंथों तथा स्मारिकाओं में आपको पढ़ा जा सकता है। गीत का परचम लिए देश-विदेश में भ्रमण करने वाले इस रचनाकार को सुनना अपने आप में एक अनोखा अनुभव है। आपने ग़ज़ल का व्याकरण लिखा और ‘रस्सियाँ पानी की’ नामक संग्रह के माध्यम से ग़ज़ल को अगली पीढ़ी तक पहुँचाने का पुनीत कार्य किया। व्यवहार से सहज, वाणी से मृदु, प्रतिभा से अतुल्य तथा व्यक्तित्व से अनुकरणीय; डॉ. कुंवर बेचैन की शाइरी में जीवन दर्शन के साथ-साथ सकारात्मकता का एक सौम्य सा मिश्रण है। इन रचनाओं में जहाँ एक ओर आधुनिकता और बेतहाशा अंधानुकरण के कारण उत्पन्न घुटन है तो दूसरी ओर संबंधों की ऊष्मा और संवेदना की छुअन भी है। वर्तमान में मंच पर मौजूद सबसे वरिष्ठ रचनाकारों में डॉ. कुंवर बेचैन एक हैं।

एक सीढ़ी और: कुंवर बेचैन

एक सीढ़ी और: कुंवर बेचैन

एक सीढ़ी और चढ़ आया समय इस साल जाने छत कहाँ है। प्राण तो हैं प्राण जिनको देह–धनु से छूटना है, जिंदगी – उपवास जिसको शाम के क्षण टूटना है, हम समय के हाथ से छूटे हुए रूमाल, जाने छत कहाँ है। यह सुबह, यह शाम बुझते दीपकों की व्यस्त आदत और वे दिन–रात कोने से फटे जख्मी हुए ख़त …

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चिट्ठी है किसी दुखी मन की: कुंवर बेचैन

चिट्ठी है किसी दुखी मन की: कुंवर बेचैन

बर्तन की यह उठका पटकी यह बात बात पर झल्लाना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। यह थकी देह पर कर्मभार इसको खांसी उसको बुखार जितना वेतन उतना उधार नन्हें मुन्नों को गुस्से में हर बार मार कर पछताना चिट्ठी है किसी दुखी मन की। इतने धंधे यह क्षीणकाय ढोती ही रहती विवश हाय खुद ही उलझन खुद ही उपाय …

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तुम – कुंवर बेचैन

तुम - कुंवर बेचैन

शोर की इस भीड़ में ख़ामोश तन्हाई–सी तुम ज़िंदगी है धूप तो मदमस्त पुरवाई–सी तुम। आज मैं बारिश में जब भीगा तो तुम ज़ाहिर हुईं जाने कब से रह रहीं थीं मुझ में अंगड़ाई–सी तुम। चाहे महफिल में रहूं चाहे अकेला मैं रहूं गूंजती रहती हो मुझमें शोख़ शहनाई–सी तुम। लाओ वो तस्वीर जिसमें प्यार से बैठे हैं हम मैं …

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अंतर – कुंवर बेचैन

अंतर - कुंवर बेचैन

मीठापन जो लाया था मैं गाँव से कुछ दिन शहर रहा अब कड़वी ककड़ी है। तब तो नंगे पाँव धूप में ठंडे थे अब जूतों में रह कर भी जल जाते हैं तब आया करती थी महक पसीने से आज इत्र भी कपड़ों को छल जाते हैं मुक्त हँसी जो लाया था मैं गाँव से अब अनाम जंजीरों ने आ …

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तुम्हारे हाथ से टंक कर – कुंवर बेचैन

तुम्हारे हाथ से टंक कर बने हीरे, बने मोती बटन मेरी कमीज़ों के। नयन का जागरण देतीं, नहाई देह की छुअनें, कभी भीगी हुई अलकें कभी ये चुम्बनों के फूल केसर-गंध सी पलकें, सवेरे ही सपन झूले बने ये सावनी लोचन कई त्यौहार तीजों के। बनी झंकार वीणा की तुम्हारी चूड़ियों के हाथ में यह चाय की प्याली, थकावट की …

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टल नही सकता – कुंवर बेचैन

टल नही सकता - कुंवर बेचैन

मैं चलते – चलते इतना थक्क गया हूँ, चल नही सकता मगर मैं सूर्य हूँ, संध्या से पहले ढल नही सकता कोई जब रौशनी देगा, तभी हो पाउँगा रौशन मैं मिटटी का दिया हूँ, खुद तो मैं अब जल नही सकता जमाने भर को खुशियों देने वाला रो पड़ा आखिर वो कहता था मेरे दिल में कोई गम पल नही …

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मीलों तक – कुंवर बेचैन

जिंदगी यूँ भी जली‚ यूँ भी जली मीलों तक चाँदनी चार कदम‚ धूप चली मीलों तक। प्यार का गाँव अजब गाँव है जिसमे अक्सर खत्म होती ही नहीं दुख की गली मीलों तक। घर से निकला तो चली साथ में बिटिया की हँसी खुशबुएँ देती रही नन्हीं कली मीलों तक। माँ के आँचल से जो लिपटी तो घुमड़ कर बरसी …

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उँगलियाँ थाम के खुद – कुंवर बेचैन

उँगलियाँ थाम के खुद चलना सिखाया था जिसे राह में छोड़ गया राह पे लाया था जिसे। उसने पोंछे ही नहीं अश्क मेरी आँखों से मैंने खुद रोके बहुत देर हँसाया था जिसे। बस उसी दिन से खफा है वो मेरा इक चेहरा धूप में आइना इक रोज दिखाया था जिसे। छू के होंठों को मेरे वो भी कहीं दूर …

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करो हमको न शर्मिंदा – कुंवर बेचैन

करो हमको न शर्मिंदा बढ़ो आगे कहीं बाबा हमारे पास आँसू के सिवा कुछ भी नहीं बाबा। कटोरा ही नहीं है हाथ में बस इतना अंतर है मगर बैठे जहाँ हो तुम खड़े हम भी वहीं बाबा। तुम्हारी ही तरह हम भी रहे हैं आज तक प्यासे न जाने दूध की नदियाँ किधर होकर बहीं बाबा। सफाई थी सचाई थी …

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