प्रायश्चित Heart-rending Story of Repentance

प्रायश्चित Heart-rending Story of Repentance

ज़रूरी नहीं है कि जैसे सपने कभी सच हो जाते हैं और उनींदी पलकों पर मोती बनकर ठहर जाते हैं, वैसे ही आँखें खोलने पर भी मुमकिन हो जाए। सत्य और असत्य का रिश्ता भी बहुत गहरा होता है। अपने आत्मविश्वास के साथ पूरे मन से अगर कोई असत्य बात भी कहता है, तो वह सत्य प्रतीत होती है। मेरे पास यहीं हुनर था। मैं जब भी बोलता था, तो हर झूठ को इस कॉन्फिडेंस के साथ कहता था कि बेचारा सामने वाला इधर-उधर देख कर किनारा कर के निकल जाता। मैंने शायद ही कभी सच बोला था। अगर बोला होगा, तो नादानी में कभी बचपन में ही बोला होगा। हो सकता है शायद पहली बार भी मैंने झूठ ही बोला होगा, पर फ़िर अचानक हनुमान जी की तरह मुझे भी अपनी आँतरिक शक्ति का एहसास हुआ कि मैं घंटों, धाराप्रवाह झूठ आसानी से बोल सकता हूँ।

बस फ़िर क्या था, मैंने पेशा भी ऐसा ही चुन लिया, जो जितना सच पर पर्दा डाल सकता था, उतना ही अमीर, प्रसिद्ध और उतना ही बड़ा वकील। एक छोटे से मुकदमे की पैरवी करते समय, मैंने अपने दोषी गवाह के पक्ष में ऐसे तर्क दिए कि वहाँ खड़े चश्मदीद गवाह भी भाग खड़े हुए। मैंने जिस झूठे आदमी को ससम्मान जिताया था, वह एक बस का ड्राइवर था, जो किसी भी राह चलते आदमी को कुचल देता था और बाद में बस से कूद कर भाग जाता था। बस के मालिक के लिए तो मैं भगवान था, क्योंकि वह जानता था कि उसका ड्राइवर चाहे शराब पीकर गाड़ी चलाएँ या मोतियाबिंद वाली आँखों से सवारियों को भगवान के पास पहुँचा दें, उसकी बस और ड्राइवर आराम से छूट जाएगा।

दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करना, जैसी लोकोक्ति मेरी किस्मत पर बिल्कुल सटीक बैठ रही थी। जिस हिसाब से झूठ बोलने में मेरी ज़ुबान तलवार की धार को भी मात कर रही थी, उसी तरह वकालत के पेशे में भी सच कहीं किसी फीके रंग की तरह मेरे काले लिबास में आकर चुपचाप बैठ गया था, जो लाख खोजने पर भी दिखाई नहीं देता था।

एक बार शाम के समय मैं अपने घर पर बैठकर अपने कुछ कागज़ात देख रहा था कि तभी मेरे पुराने परिचित मिस्टर शर्मा आए।

शर्मा जी को देखकर मेरा चेहरा खिल उठा। वह मेरे बहुत पुराने क्लाइंट और शहर के जाने माने रईस थे। मुझ जैसे बेईमान लोगो के दम पर अपने अनेकानेक गोरखधंधे बड़े ही आराम से चला रहे थे। लाखों का लेन-देन तो उनके हाथ से रोज़ाना ही होता था। कई झूठे गवाह पेश करके ना जाने कितने मुक़दमे, मैं उन्हें जिताकर उनकी आँख का तारा बन चुका था। शर्मा जी गुदगुदे सोफे में धँसते हुए बोले – “एक केस है, पर थोड़ा टेढ़ा है।”

“कितना…” मैंने उनकी तरफ़ देखते हुए पूछा।

शर्मा जी मेरी फ़ितरत अच्छी तरह जानते थे, इसलिए बोले “दो लाख रुपये दूँगा।”

“एक मकान खाली करवाना है।”

मैं गड्डी की तरफ़ देखकर कुछ सोचने लगा।

शर्मा जी इस खेल के पुराने खिलाड़ी थे। वे मेरे मनोभाव ताड़ गए और कुछ ठहरकर बोले – “पँद्रह लाख।”

“किसका मकान?” मैंने पूछा।

शर्मा जी ने बोले – “मेरा ही मकान है। मेरा एक ख़ास मित्र उस मकान को खरीद कर, उसकी जगह पर एक आलीशान होटल बनाना चाहता है। कमर्शियल जगह होने के कारण वहाँ रात दिन ग्राहकों का मेला लगा रहेगा।”

मैंने आश्चर्य से पूछा – “इसमें दिक्कत क्या है?”

शर्मा जी ठंडी आह भरते हुए बोले – “अरे दिक्कत ही तो है। मेरे परदादा ने एक ब्राह्मण परिवार को वह मकान किराए पर दिया था, बस तभी से उसकी तीन पीढ़ियाँ इस मकान में रह रही है।”

“तब तो खाली करना कराना लगभग नामुमकिन है।”

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