ज्योति कलश छलके हुए गुलाबी लाल सुनहरे रंग दल बादल के ज्योति कलश छलके। घर आंगन बन उपवन उपवन करती ज्योति अमृत से सिंचन मंगल घट ढलके ज्योति कलश छलके। पात पात बिरवा हरियाला धरती का मुख हुआ उजाला सच सपने कल के ज्योति कलश छलके। ऊषा ने आंचल फैलाया फैली सुख की शीतल छाया नीचे आंगन के ज्योति कलश …
Read More »कमरे में धूप – कुंवर नारायण
हवा और दरवाजों में बहस होती रही दीवारें सुनती रहीं। धूप चुपचाप एक कुरसी पर बैठी किरणों के ऊन का स्वैटर बुनती रही। सहसा किसी बात पर बिगड़कर हवा ने दरवाजे को तड़ से एक थप्पड़ जड़ दिया। खिड़कियाँ गरज उठीं‚ अखबार उठ कर खड़ा हो गया किताबें मुँह बाए देखती रहीं पानी से भरी सुराही फर्श पर टूट पड़ी …
Read More »क्या वह नहीं होगा – कुंवर नारायण
क्या फिर वही होगा जिसका हमें डर है? क्या वह नहीं होगा जिसकी हमें आशा थी? क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे बाजारों में अपनी मूर्खताओं के गुलाम? क्या वे खरीद ले जाएंगे हमारे बच्चों को दूर देशों में अपना भविष्य बनवाने के लिये? क्या वे फिर हमसे उसी तरह लूट ले जाएंगे हमारा सोना हमें दिखलाकर कांच के चमकते …
Read More »नीम के फूल – कुंवर नारायण
एक कड़वी–मीठी औषधीय गंध से भर उठता था घर जब आँगन के नीम में फूल आते। साबुन के बुलबुलों–से हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे–छोटे फूल दो–एक माँ के बालों में उलझे रह जाते जब की तुलसी घर पर जल चढ़ाकर आँगन से लौटती। अजीब सी बात है मैंने उन फूलों को जब भी सोचा बहुवचन में सोचा उन्हें कुम्हलाते …
Read More »काँधे धरी यह पालकी – कुंवर नारायण
काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस गाँव से उस गाँव तक नंगे बदता फैंटा कसे बारात किसकी ढो रहे किसकी कहारी में फंसे? यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारो साल की काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस पाँव से उस पाँव पर ये पाँव बेवाई फटे काँधे धरा किसका महल? हम नीव पर किसकी …
Read More »यूं ही होता है – जावेद अख्तर
जब जब दर्द का बादल छाया जब ग़म का साया लहराया जब आंसू पलकों तक आया जब यह तन्हा दिल घबराया हमने दिल को यह समझाया दिल आखिर तू क्यों रोता है दुनियां में यूं ही होता है यह जो गहरे सन्नाटे हैं वक्त ने सब को ही बांटे हैं थोड़ा ग़म है सबका किस्सा थोड़ी धूप है सबका हिस्सा …
Read More »फूल और कांटे – अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
हैं जनम लेते जगत में एक ही‚ एक ही पौधा उन्हें है पालता। रात में उन पर चमकता चांद भी‚ एक ही–सी चांदनी है डालता। मेह उन पर है बरसता एक–सा‚ एक–सी उन पर हवाएं हैं वहीं। पर सदा ही यह दिखाता है समय‚ ढंग उनके एक–से होते नहीं। छेद कर कांटा किसी की उंगलियां‚ फाड़ देता है किसी का …
Read More »परमगुरु – अनामिका
मैं नहीं जानती कि सम्य मेरी आँखों का था या मेरे भौचक्के चेहरे का, लेकिन सरकारी स्कूल की उस तीसरी पाँत की मेरी कुर्सी पर तेज प्रकाल से खुदा था– ‘उल्लू’ मरी हुई लाज से कभी हाथ उस पर रखती, कभी कॉपी लेकिन पट्ठा ऐसा था– छुपने का नाम ही नहीं लेता था ! धीरे–धीरे हुआ ऐसा– खुद गया मेरा वह …
Read More »तुमको रुप का अभिमान – रामकुमार चतुर्वेदी ‘चंचल’
तुमको रुप का अभिमान, मुझको प्यार का अभिमान! तुम हो पूर्णिमा साकार, मैं हूँ सिंधु–उर का ज्वार! दोनो का सनातन मान, दोनो का सनातन प्यार! तुम आकाश, मैं पाताल, तुम खुशहाल, मैं बेहाल; तुमको चाँदनी का गर्व, मुझको ज्वार का अभिमान! तुमको रुप का अभिमान, मुझको प्यार का अभिमान! मुझको तो नहीं मालूम किस दिन बँध गए थे प्राण, कैसे …
Read More »कौन जाने – बालकृष्ण राव
झुक रही है भूमि बायीं ओर‚ फिर भी कौन जाने‚ नियति की आँखें बचाकर‚ आज धारा दाहिने बह जाए! जाने किस किरण–शर के वरद आघात से निर्वर्ण रेखाचित्र यह बीती निशा का रँग उठे कब‚ मुखर हो कब मूक क्या कह जाए! ‘संभव क्या नहीं है आज?’ लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की कर रही है प्रेरणा या प्रश्न अंकित? कौन …
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