कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं – बालस्वरूप राही

कंटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पांव को मेरे‚
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं!

हवाओं में न जाने आज क्यों कुछ कुछ नमी सी है
डगर की ऊष्णता में भी न जाने क्यों कमी सी है‚
गगन पर बदलियां लहरा रहीं हैं श्याम आंचल सी
कहीं तुम नयन में सावन बिछाए तो नहीं बैठीं!

अमावस की दुल्हन सोई हुई है अवनि से लग कर
न जाने तारिकाएं बाट किसकी जोहतीं जग कर‚
गहन तम है डगर मेरी मगर फिर भी चमकती है‚
कहीं तुम द्वार पर दीपक जलाए तो नहीं बैठीं!

हुई कुछ बात ऐसी फूल भी फीके पड़े जाते
सितारे भी चमक पर आज तो अपनी न इतराते‚
बहुत शरमा रहा है बदलियों की ओट में चंदा
कहीं तुम आंख में काजल लगाए तो नहीं बैठीं!

कंटीले शूल भी दुलरा रहे हैं पांव को मेरे
कहीं तुम पंथ पर पलकें बिछाए तो नहीं बैठीं!

∼ बालस्वरूप राही

About Bal Swaroop Rahi

बालस्वरूप राही जन्म– १६ मई १९३६ को तिमारपुर, दिल्ली में। शिक्षा– स्नातकोत्तर उपाधि हिंदी साहित्य में। कार्यक्षेत्र: दिल्ली विश्विद्यालय में हिंदी विभागाध्यक्ष के साहित्यिक सहायक, लेखन, संपादन व दूरदर्शन के लिये लगभग तीस वृत्तिचित्रों का निर्माण। कविता, लेख, व्यंग्य रचनाएँ, नियमित स्तंभ, संपादन और अनुवाद के अतिरिक्त फिल्मों में पटकथा व गीत लेखन। प्रकाशित कृतियाँ: कविता संग्रह- मौन रूप तुम्हारा दर्पण, जो नितांत मेरी है, राग विराग। बाल कविता संग्रह- दादी अम्मा मुझे बताओ, जब हम होंगे बड़े, बंद कटोरी मीठा जल, हम सबसे आगे निकलेंगे, गाल बने गुब्बारे, सूरज का रथ आदि।

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