दादाजी की सीख: पर्यावरण संरक्षण पर बाल कहानी

दादाजी की सीख: पर्यावरण संरक्षण पर बाल कहानी

“सुबह से इस बन्दर ने हड़कंप मचा रखा है” मम्मी ने खड़की से बाहर की ओर झाँकते हुए कहा।

मम्मी की बात सुनते ही टीनू ने पास रखी किताब उठाई और पढ़ने का नाटक करने लगा।

मम्मी ने टीनू को देखा और कहा – “तुम सिर के बल क्यों नहीं खड़े हो जाते”?

“क्यों मम्मी”? टीनू ने मासूमियत से पूछा।

“क्योंकि तुम ये जो उलटी किताब पकड़े बैठे हो ना, ये तुम्हें सीधी दिखाई देगी” कहते हुए मम्मी हँस पड़ी।

“वो मम्मी, मुझे बन्दर के नाम से ही बहुत डर लगता है और मुझे लगा कि आप फिर मुझे उसे भागने के लिए कहोगी”।

पर तभी बन्दर खिड़की पर आकर बैठ गया।

दादाजी की सीख: डॉ. मंजरी शुक्ला

मम्मी ने डर के मारे टीनू का हाथ पकड़ लिया और मुँह पर चादर डाल ली।

कुछ देर बाद मम्मी ने टीनू से कहा – “अब तो बन्दर मुझे नहीं देख पा रहा है ना”?

“चादर से आपने मुँह ढंका है, बन्दर ने नहीं। अब तो वह और गौर से आपको देख रहा है” टीनू धीरे से बोला।

तभी कमरे में पापा आये और बन्दर उनके हाथ में डंडा देखकर भाग गया।

बन्दर के जाते ही मम्मी वापस हिम्मती बन गई और बोली – “कितने दिनों से कह रही हूँ कि अमरुद और केले के पेड़ कटवा दो पर आप मेरी सुनते ही नहीं”।

“इतने सालों में जाकर एक हरा भरा पेड़ तैयार होता है ओर तुम कह रही हो कटवा दूँ” पापा नाराज़ होते हुए बोले।

“हाँ मम्मी, मेरी टीचर बता रही थी कि पेड़ों से हमें ऑक्सीजन मिलती है और एक पेड़ के बड़े होने में बहुत समय लगता है इसलिए हमें पेड़ लगाने चाहिए ना कि काटने चाहिए”।

“तो उन्हीं से पूछ आ कि बन्दर कैसे भगाये” मम्मी गुस्से से भुनभुनाते हुए बोली और खिड़की बंद करने चली गई।

पापा बोले – “चलो, छत पर चलकर देखते है कि आज बन्दर ने कौन सा फल खाया”।

टीनू ये सुनकर तुरंत छत की ओर दौड़ा।

पापा जब तक चलते, टीनू दौड़ते हुए एक ही साँस में सारी सीढ़ियाँ चढ़कर छत पर पहुँच चुका था।

छत पर दादाजी आराम से बैठकर अखबार पढ़ रहे थे।

टीनू ने हाँफते हुए पुछा – “आपको बन्दर से डर नहीं लगता”?

“अरे, वह तो पेड़ पर लगे फल खाने आता है और वहीँ से वापस चला जाता है” दादाजी ने कहा।

“लगता है आज उसने अमरुद को हाथ भी नहीं लगाया, सिर्फ़ केले ही खाकर चला गया है” टीनू ने छत के कोने में पड़े केले के छिलकों को देखते हुए कहा।

“और अभी भी खा रहा है” दादाजी ने मुस्कुराते हुए सामने वाली छत की ओर इशारा करते हुए कहा जहाँ पर बन्दर आराम से बैठा हुआ केला छीलकर खा रहा था।

तब तक टीनू के दोस्त मोंटू और सोनू भी उसे ढूंढते हुए छत पर आ गए थे।

सोनू बोला-“दादाजी, हमें बन्दर को जाल में बाँधकर कहीं दूर फेंक देना चाहिए।”

“हाँ… बहुत बड़े जंगल में…” मोंटू हवा में अपने दोनों हाथ फैलाते हुए बोला।

“हमारे घर में आ जाता है सारे फल खाने के लिए…” टीनू ने गुस्से से कहा।

दादाजी बच्चों की बातें सुनकर मुस्कुरा रहे थे।

पापा बोले – “हम सबको इस बन्दर पर बहुत गुस्सा आ रहा है। हमारे ही पेड़ के फल हमारे ही घर से ले जाकर बड़े आराम से खा रहा है”।

“किसने कहाँ कि ये हमारा घर है?” दादाजी ने अखबार मोड़ते हुए कहा।

सोनू ने टीनू की ओर आश्चर्य से देखते हुए पूछा – “ये क्या तेरा घर नहीं है?”

टीनू के साथ-साथ उसके पापा भी सकपका गए थे।

टीनू ने कहा – “दादाजी, तो फिर ये किसका घर है जिसमें हम सब रहते है”?

दादाजी ने बन्दर की ओर देखते हुए धीरे से कहा – “उसका”

सब ने बन्दर की ओर देखा जो केले खाने के बाद भी वहीँ बैठा हुआ इधर उधर देख रहा था।

पापा सिर पर हाथ फेरते हुए बोले – “मुझे कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। बन्दर का भी भला कोई घर होता है”।

“क्यों नहीं होता है। इस कॉलोनी के बनने से पहले यहाँ पर एक घना जंगल था जिसमें बहुत सारे अनगिनत हरे भरे वृक्ष थे पर लोगो ने पहले तो शहरों के बीच के पेड़ काटे और फिर भी उनका मन नहीं भरा तो शहर के बाहर आकर जंगल काटना शुरू कर दिए। मुझे अच्छे से याद है कि जब मैं छोटा था तो मेरे पिताजी के साथ इस रास्ते से गुज़रता था। यहाँ पर सड़कों पर भी मोर, हिरन, बंदर और नील गाय आराम से घूमा करते थे। पर अब तो एक शहर खत्म होता है तो दूसरा शुरू हो जाता है जंगल तो कहीं रहा ही नहीं” कहते हुए दादाजी का गला भर आया।

सभी बच्चों के साथ-साथ पापा की नज़रें भी शर्म से झुक गई।

सोनू बोला – “दादाजी, आप बिलकुल सही कह रहे है जब जंगल ही नहीं रहेगा तो पशु पक्षी कहाँ जाएंगे। वो हमारे घर नहीं आते है बल्कि हमनें ही उनके घर खत्म कर दिए है”।

टीनू बोला – “मुझे आज पहली बार उस बंदर पर बहुत दया और प्यार आ रहा है”।

“हाँ, हमें सभी पशु पक्षियों के बारें में भी सोचना चाहिए आख़िर उन्हें भी तो हमारी तरह भूख प्यास लगती है” पापा ने केले के छिलकों पर नज़र डालते हुए बोला।

“हाँ… कहते हुए दादाजी ने अपना चश्मा पोंछते हुए बन्दर की ओर देखा जो उछलता कूदता हुआ एक आम के पेड़ पर बैठा हुआ था।

डॉ. मंजरी शुक्ला [‘बच्चों का देश’ पत्रिका में भी प्रकाशित]

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