याद आती रही – प्रभा ठाकुर

आंख रह–रह मेरी डबडबाती रही‚
हम भुलाते रहे याद आती रही!

प्राण सुलगे‚ तो जैसे धुआं छा गया।
नैन भीगे‚ ज्यों प्यासा कुआं पा गया।
रोते–रोते कोई बात याद आ गई‚
अश्रु बहते रहे‚ मुसकुराती रही!

सांझ की डाल पर सुगबुगाती हवा‚
फिर मुझे दृष्टि भरकर किसी ने छुआ‚
घूम कर देखती हूं‚ तो कोई नहीं‚
मेरी परछाई मुझको चिढ़ाती रही!

एक तस्वीर है‚ एक है आइना‚
जब भी होता किसी से मेरा सामना
मैं समझ ही न पाती कि मैं कौन हूं‚
शक्ल‚ यूं उलझनों को बढ़ाती रही!

∼ प्रभा ठाकुर

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