महाशिवरात्रि पर्व का महत्त्व

शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के निर्माण के समय महाशिवरात्रि की मध्यरात्रि में शिव का रूद्र रूप प्रकट हुआ था। महाशिवरात्रि के विषय में मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है। इस दिन शिव जी की उपासना और पूजा करने से शिव जी जल्दी प्रसन्न होते हैं।

हिन्दुओं के दो सम्प्रदाय माने गए हैं। एक शैव और दूसरा वैष्णव। अन्य सारे सम्प्रदाय इन्हीं के अन्तर्गत माने जाते हैं। नामपंथी, शांतपंथी या आदिगुरु शंकाराचार्य के दशनामी सम्प्रदाय, सभी शैव सम्प्रदाय के अन्तर्गत आते हैं। भारत में शैव सम्प्रदाय की सैकड़ों शाखाएँ हैं। यह विशाल वट वृक्ष की तरह संपूर्ण भारत में फैला हुआ है। वर्ष में 365 दिन होते हैं और लगभग इतनी ही रात्रियाँ भी। इनमें से कुछ चुनिंदा रात्रियाँ ही होती हैं जिनका कुछ महत्व होता है। उन चुनिंदा रात्रियों में से महाशिवरात्रि ऐसी रात्रि है जिसका महत्व सबसे अधिक है। यह भी माना जाता है कि इसी रात्रि में भगवान शंकर का रुद्र के रूप में अवतार हुआ था।

देवों के देव भगवान भोले नाथ के भक्तों के लिये श्री महाशिवरात्रि का व्रत विशेष महत्व रखता हैं। यह पर्व फाल्गुन कृ्ष्ण पक्ष की त्रयोदशी तिथि के दिन मनाया जाता है। वर्ष 2020 में यह शुभ उपवास, 21 फरवरी का रहेगा। आज व्रत रखने से भगवान भोले नाथ शीघ्र प्रसन्न हों, उपवासक की मनोकामना पूरी करते हैं। इस व्रत को सभी स्त्री-पुरुष, बच्चे, युवा,वृ्द्धों के द्वारा किया जा सकता हैं।

आज के दिन विधिपूर्वक व्रत रखने पर तथा शिवपूजन, शिव कथा, शिव स्तोत्रों का पाठ व “ॐ नम: शिवाय” का पाठ करते हुए रात्रि जागरण करने से अश्वमेघ यज्ञ के समान फल प्राप्त होता हैं। व्रत के दूसरे दिन ब्राह्माणों को यथाशक्ति वस्त्र-क्षीर सहित भोजन, दक्षिणादि प्रदान करके संतुष्ट किया जाता हैं।

इस दिन व्रती को फल, पुष्प, चंदन, बिल्वपत्र, धतूरा, धूप, दीप और नैवेद्य से चारों प्रहर की पूजा करनी चाहिए। दूध, दही, घी, शहद और शक्कर से अलग-अलग तथा सबको एक साथ मिलाकर पंचामृत से शिव को स्नान कराकर जल से अभिषेक करें। चारों प्रहर के पूजन में शिव पंचाक्षर “ओम् नमः शिवाय” मंत्र का जप करें। भव, शर्व, रुद्र, पशुपति, उग्र, महान, भीम और ईशान, इन आठ नामों से पुष्प अर्पित कर भगवान की आरती और परिक्रमा करें।

महाशिवरात्रि पर्व का महत्त्व

महाशिवरात्रि हिंदू धर्म का एक प्रमुख त्योहार है। हिंदू कैलेंडर के अनुसार इसे हर साल फाल्गुन माह में 13वीं रात या 14वें दिन मनाया जाता है। इस त्योहार में श्रद्धालु पूरी रात जागकर भगवान शिव की आराधना में भजन गाते हैं। कुछ लोग पूरे दिन और रात उपवास भी करते हैं। शिव लिंग को पानी और बेलपत्र चढ़ाने के बाद ही वे अपना उपवास तोड़ते हैं।

महाशिवरात्रि के विषय में मान्यता है कि इस दिन भगवान भोलेनाथ का अंश प्रत्येक शिवलिंग में पूरे दिन और रात मौजूद रहता है। इस दिन शिव जी की उपासना और पूजा करने से शिव जी जल्दी प्रसन्न होते हैं। शिवपुराण के अनुसार सृष्टि के निर्माण के समय महाशिवरात्रि की मध्यरात्रि में शिव का रूद्र रूप प्रकट हुआ था।

भगवान शिव का निवास स्थान कैलाश पर्वत माना जाता है, लेकिन शिव समस्त जगत् में विचरण करते रहते हैं। अगर वे कैलाश पर्वत पर विचरण करते हैं, तो श्मशान में भी धूनी रमाते हैं। हिमालय पर उनके विचरण करने की मान्यता के कारण ही उत्तराखंड के नगरों और गाँवों में शिव के हज़ारों मंदिर हैं। धार्मिक मान्यता है कि शिवरात्रि को शिव जगत् में विचरण करते हैं।

शिवरात्रि के दिन शिव का दर्शन करने से हज़ारों जन्मों का पाप मिट जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। यह महाशिवरात्रि के पर्व का महत्व ही है कि सभी आयु वर्ग के लोग इस पर्व में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। इस दिन शिवभक्त काँवड़ में गंगाजी का जल भरकर शिवजी को जल चढ़ाते हैं। और उनकी पूजा-अर्चना करते हैं। शिव मंदिरों पर पूजा-अर्चना के लिए काँवड़ियों का क़ाफ़िला गेरुए वस्त्र पहनकर निकलता है। इस दिन कुँवारी कन्याएँ अच्छे वर के लिए शिव की पूजा करती हैं। शिव को नीलकंठ भी कहा जाता है। वे ऐसे देवता हैं जो विष स्वयं ग्रहण कर लेते हैं और अमृत दूसरों के लिए छोड़ देते हैं। इसलिए शिव जगत् के उध्दारक हैं।

भारतीय धर्म पद्धतियों में सनातन काल से लिंग पूजा का चलन रहा है। यह तक कि सिंधु सभ्यता में भी लिंग और योनि के अवशेष मिले हैं। क्या लिंग के वे अवशेष शिवलिंग की पूजा से संबंधित हैं? यह कह पाना तब तक संभव नहीं है जब तक सिंधु सभ्यता की लिपियों को पढ़ने में सफलता नहीं मिलती। वैसे पशुपति की मुहरें और सांडों की मूर्तियों एक अघोषित शैव परंपरा की तरफ जरूर इशारा कर रही है। फिर भी निश्चित तौर पर कुछ भी नहीं कहा जा सकता है। वैदिक ग्रंथों में हम कुदरत के रूप में देवताओं की पूजा देखते हैं। इंद्र, वरुण, सूर्य आदि देवता कुदरत की शक्तियों के प्रतिक रहे हैं लेकिन लिंग पूजा का वर्णन ऋग्वेद में नहीं मिलता।

लिंग क्या ईश्वर के शरीर का अंग विशेष है?

यह एक भ्रांति है। लिंग पुराण के अनुसार, लिंग अव्यक्त परमेश्वर का स्थूल रूप है। शैव मत में शिव निराकार रूप में अलिंगी कहे जाते हैं और लिंग स्थूल रूप में उनका व्यक्त रूप है। दरअसल, लिंग की संकल्पना सृष्टि के निर्माण से जुड़ी है। निराकार परमेश्वर जब सृष्टि का निर्माण करता है तो कुदरती रूप में लिंग के रूप में प्रकट होता है। लिंग का आधार योनि स्वरूप योगमाया या माया होती है। इसी स्थूल रूपी लिंग और योनि स्वरूप माया से संसार की सृष्टि होती है और प्रलय भी इसी लिंग शब्द की उत्पत्ति “लयनात् इति लिंग:” से हुई है यानी जिस निराकार (अलिंगी) परमेश्वर के स्थूल रूप (लिंग) में संसार का लय हो जाता है।

क्या लिंग पूजा विशेष देवता से जुड़ी है?

यह भ्रामक धारण है। परमेश्वर को विभिन्न स्वरूपों और नामों से बुलाया जाता है। वे शिव हो सकते हैं, विष्णु हो सकते हैं, ब्रह्मा हो सकते हैं या कोई दूसरे ईश्वरीय नाम से पुकारे जा सकते हैं। दरअसल जहां भी सृष्टि के निर्माता के लिए जिस भी ईश्वरीय सत्ता को परमेश्वर कहा जाता है, उनके स्थूल रूप या मूर्त रूप को लिंग कहा जाता है। आदिगुरु शंकराचार्य ने विष्णु के स्थूल मूर्त रूप को “परब्रह्मलिंग भजे पाण्डुरंगम्” कहा है। भगवान कृष्ण ने भी देवताओं की सभी मूर्तियों को लिंग कहा है। सृष्टि के निर्माता के रूप में भगवान सूर्य को एकलिंगी कहा जाता है।

शिवलिंग की पूजा ज्यादा प्रचलित

शैव मत के अनुसार, भगवान शिव ने खुद को वारह ज्योतिर्लिंगों के रूप में प्रकट किया था। माता पार्वती ने भी भगवान शिव को प्राप्त करने के लिए बालू से लिंग बनाकर पूजा की थी। जब एकबार ब्रह्माजी और भगवान विष्णु ने खुद को सृष्टि का रचियता बताने की शर्त लगी थी, तब भगवान शिव एक ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए थे, जिसके ओर-छोर का पता लगाने में ब्रह्मा और विष्णु दोनों ही असफल रहे थे। ऐसे में उस लिंग से भगवान शिव प्रकट हुए और उन्होंने खुद को सृष्टि का आदिपुरुष बताकर दोनों का भ्रम दूर किया था।

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