4to40.com

क्या वह नहीं होगा – कुंवर नारायण

क्या फिर वही होगा जिसका हमें डर है? क्या वह नहीं होगा जिसकी हमें आशा थी? क्या हम उसी तरह बिकते रहेंगे बाजारों में अपनी मूर्खताओं के गुलाम? क्या वे खरीद ले जाएंगे हमारे बच्चों को दूर देशों में अपना भविष्य बनवाने के लिये? क्या वे फिर हमसे उसी तरह लूट ले जाएंगे हमारा सोना हमें दिखलाकर कांच के चमकते …

Read More »

नीम के फूल – कुंवर नारायण

एक कड़वी–मीठी औषधीय गंध से भर उठता था घर जब आँगन के नीम में फूल आते। साबुन के बुलबुलों–से हवा में उड़ते हुए सफ़ेद छोटे–छोटे फूल दो–एक माँ के बालों में उलझे रह जाते जब की तुलसी घर पर जल चढ़ाकर आँगन से लौटती। अजीब सी बात है मैंने उन फूलों को जब भी सोचा बहुवचन में सोचा उन्हें कुम्हलाते …

Read More »

काँधे धरी यह पालकी – कुंवर नारायण

काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस गाँव से उस गाँव तक नंगे बदता फैंटा कसे बारात किसकी ढो रहे किसकी कहारी में फंसे? यह कर्ज पुश्तैनी अभी किश्तें हज़ारो साल की काँधे धरी यह पालकी, है किस कन्हैयालाल की? इस पाँव से उस पाँव पर ये पाँव बेवाई फटे काँधे धरा किसका महल? हम नीव पर किसकी …

Read More »

बच्चे शरारती क्यों-Learn How to handle naughty kids

बच्चे शरारती क्यों-Learn How to handle naughty kids

आज के अधिंकांश मां-बाप को शिकायत रहती है की उनके बच्चे बहुत उच्छृंखल हो गए हैं। उन्हें सम्मान नहीं देते हैं। दूसरों के सामने उनकी बेइज़्ज़ती कर देते हैं। कई बार तो ऐसी हरकतें करते हैं जिनके लिए मां-बाप को शर्मिंदा होना पड़ता है। वास्तव में यह एक चिंता का विषय है। क्या कभी हमने यह सोचा है की बच्चे …

Read More »

सूरज डूब चुका है – अजित कुमार

सूरज डूब चुका है‚ मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है। सुबह उषा किरणों ने मुझको यों दुलराया‚ जैसे मेरा तन उनके मन को हो भाया‚ शाम हुई तो फेरीं सबने अपनी बाहें‚ खत्म हुई दिन भर की मेरी सारी चाहें‚ धरती पर फैला अंधियारा‚ रंग बिरंगी आभावाला सूरज डूब चुका है‚ मेरा मन दुनिया से ऊब चुका है। फूलों …

Read More »

शीशे का घर – श्रीकृष्ण तिवारी

जब तक यह शीशे का घर है तब तक ही पत्थर का डर है आँगन–आँगन जलता जंगल द्वार–द्वार सर्पों का पहरा बहती रोशनियों में लगता अब भी कहीं अँधेरा ठहरा। जब तक यह बालू का घर है तब तक ही लहरों का डर है टहनी–टहनी टंगा हुआ है जख्म भरे मौसम का चेहरा गलियों में सन्नाटा पसरा। जब तक यह …

Read More »

सूने घर में – सत्यनारायण

सूने घर में कोने कोने मकड़ी बुनती जाल। अम्मा बिन आंगन सूना है बाबा बिन दालान‚ चिठ्ठी आई है बहिना की सांसत में है जान‚ नित नित नये तकादे भेजे बहिना की ससुराल। भइया तो परदेस बिराजे कौन करे अब चेत‚ साहू के खाते में बंधक है बीघे भर खेत‚ शायद कुर्की जब्ती भी हो जाए अगले साल। ओर–छोर छप्पर …

Read More »

सोने के हिरन – कन्हैया लाल वाजपेयी

आधा जीवन जब बीत गया बनवासी सा गाते रोते तब पता चला इस दुनियां में सोने के हिरन नहीं होते। संबंध सभी ने तोड़ लिये चिंता ने कभी नहीं छोड़े सब हाथ जोड़ कर चले गये पीड़ा ने हाथ नहीं जोड़े। सूनी घाटी में अपनी ही प्रतिध्वनियों ने यों छला हमे हम समझ गये पाषाणों के वाणी मन नयन नहीं …

Read More »

स्मृति बच्चों की – वीरेंद्र मिश्र

अब टूट चुके हैं शीशे उन दरवाज़ों के जो मन के रंग महल के दृढ़ जड़ प्रहरी हैं जिनको केवल हिलना–डुलना ही याद रहा मस्तक पर चिंता की तलहटियाँ गहरी हैं कोई निर्मम तूफान सीढ़ियों पर बैठा थककर सुस्ताकर अंधकार में ऊँघ रहा ऊपर कोई नन्हें–से बादल का टुकड़ा कुछ खोकर जैसे हर तारे को सूंघ रहा यह देख खोजने …

Read More »

फूटा प्रभात – भारत भूषण अग्रवाल

फूटा प्रभात – भारत भूषण अग्रवाल

फूटा प्रभात‚ फूटा विहान बह चले रश्मि के प्राण‚ विहग के गान‚ मधुर निर्झर के स्वर झर–झर‚ झर–झर। प्राची का अरुणाभ क्षितिज‚ मानो अंबर की सरसी में फूला कोई रक्तिम गुलाब‚ रक्तिम सरसिज। धीरे–धीरे‚ लो‚ फैल चली आलोक रेख धुल गया तिमिर‚ बह गयी निशा; चहुँ ओर देख‚ धुल रही विभा‚ विमलाभ कान्ति। सस्मित‚ विस्मित‚ खुल गये द्वार‚ हँस रही …

Read More »