पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के अनमोल विचार

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के अनमोल विचार

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के अनमोल विचार – पण्डित दीनदयाल उपाध्याय (जन्म: 25 September 1916 Mathura – 11 February 1968, Mughalsarai) महान चिन्तक और संगठनकर्ता थे। वे भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे। उन्होंने भारत की सनातन विचारधारा को युगानुकूल रूप में प्रस्तुत करते हुए देश को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा दी। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे। राजनीति के अतिरिक्त साहित्य में भी उनकी गहरी अभिरुचि थी। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे। केवल एक बैठक में ही उन्होंने चन्द्रगुप्त नाटक लिख डाला था।

दीनदयाल उपाध्याय के विचार हिंदी में

उपाध्याय जी ने पिलानी, आगरा तथा प्रयाग में शिक्षा प्राप्त की। बी०.एससी० बी०टी० करने के बाद भी उन्होंने नौकरी नहीं की। छात्र जीवन से ही वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सक्रिय कार्यकर्ता हो गये थे। अत: कालेज छोड़ने के तुरन्त बाद वे उक्त संस्था के प्रचारक बन गये और एकनिष्ठ भाव से संघ का संगठन कार्य करने लगे। उपाध्यायजी नितान्त सरल और सौम्य स्वभाव के व्यक्ति थे.

सन १९५१ ई० में अखिल भारतीय जनसंघ का निर्माण होने पर वे उसके संगठन मन्त्री बनाये गये। दो वर्ष बाद सन् १९५३ ई० में उपाध्यायजी अखिल भारतीय जनसंघ के महामन्त्री निर्वाचित हुए और लगभग १५ वर्ष तक इस पद पर रहकर उन्होंने अपने दल की अमूल्य सेवा की। कालीकट अधिवेशन (दिसम्बर १९६७) में वे अखिल भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष निर्वाचित हुए। ११ फरवरी १९६८ की रात में रेलयात्रा के दौरान मुगलसराय के आसपास उनकी हत्या कर दी गयी।

विलक्षण बुद्धि, सरल व्यक्तित्व एवं नेतृत्व के अनगिनत गुणों के स्वामी भारतीय राजनीतिक क्षितिज के इस प्रकाशमान सूर्य ने भारतवर्ष में समतामूलक राजनीतिक विचारधारा का प्रचार एवं प्रोत्साहन करते हुए सिर्फ ५२ साल क उम्र में अपने प्राण राष्ट्र को समर्पित कर दिए। अनाकर्षक व्यक्तित्व के स्वामी दीनदयालजी उच्च-कोटि के दार्शनिक थे किसी प्रकार का भौतिक माया-मोह उन्हें छू तक नहीं सका।

पण्डित दीनदयाल उपाध्याय के अनमोल विचार

  • ये ज़रूरी है कि हम “हमारी राष्ट्रीय पहचान” के बारे में सोचें जिसके बिना “स्वतंत्रता” का कोई अर्थ नहीं है।
  • भारत जिन समस्याओं का सामना कर रहा है उसका मूल कारण इसकी “राष्ट्रीय पहचान” की उपेक्षा है।
  • अवसरवाद ने राजनीति में लोगों के विश्वास को हिला कर रख दिया है।
  • किसी सिद्धांत को ना मानने वाले अवसरवादी हमारे देश की राजनीति नियंत्रित करते हैं।
  • हम लोगों ने अंग्रेजी वस्तुओं का विरोध करने में तब गर्व महसूस किया था जब वे (अंग्रेज) हम पर शाशन करते थे, पर हैरत की बात है, अब जब अंग्रेज जा चुके हैं, पश्चिमीकरण प्रगति का पर्याय बन चुका है।
  • पश्चिमी विज्ञान और पश्चिमी जीवन दो अलग -अलग चीजें हैं। जहाँ पश्चिमी विज्ञान सार्वभौमिक है; और यदि हमें आगे बढ़ना है तो इसे हमारे द्वारा अवश्य अपनाया जाना चाहिए, वहीँ पश्चिमी जीवन और मूल्यों के बारे में ये बात सत्य नहीं है।
  • पिछले एक हज़ार वर्षों में हमने जो भी आत्मसात किया चाहे वो हम पर थोपा गया या हमने स्वेच्छा से अपनाया – उसे अब छोड़ा नहीं जा सकता।
  • मानवीय ज्ञान आम संपत्ति है।
  • स्वतंत्रता तभी सार्थक हो सकती है यदि वो हमारी संस्कृति की अभिव्यक्ति का साधन बन जाए।
  • भारतीय संस्कृति की मौलिक विशेषता है कि यह जीवन को एक एकीकृत समग्र रूप में देखती है।
  • वहां जीवन में विविधता और बहुलता है लेकिन हमने हमेशा इसके पीछे की एकता को खोजने का प्रयास किया है।
  • मुसलमान हमारे शरीर का शरीर और खून का खून हैं।
  • शक्ति हमारे असंयत व्यवहार में नहीं बल्कि संयत कारवाई में निहित है।
  • अनेकता में एकता और विभिन्न रूपों में एकता की अभिव्यक्ति भारतीय संस्कृति की सोच रही है।
  • मानव प्रकृति में दोनों प्रवृत्तियां रही हैं – एक तरफ क्रोध और लोभ तो दूसरी तरफ प्रेम और त्याग।
  • नैतिकता के सिद्धांत किसी के द्वारा बनाये नहीं जाते, बल्कि खोजे जाते हैं।
  • अंग्रेजी शब्द रिलिजन, धर्म के लिए सही शब्द नहीं है।
  • धर्म एक बहुत व्यापक विचार है जो समाज को बनाये रखने के सभी पहलुओं से सम्बंधित है।
  • धर्म के मूल सिद्धांत शाश्वत और सार्वभौमिक हैं। हालांकि, उनका क्रियान्वन समय, स्थान और परिस्थितियों के अनुसार अलग -अलग हो सकता है।
  • एक बीज, जड़ों, तानों, शाखाओं, पत्तियों, फूलों और फलों के रूप में अभिवयक्त होता है। इन सभी के अलग -अलग रूप, रंग और गुण होते हैं। फिर भी हम बीज के माध्यम से उनकी एकता के सम्बन्ध को पहचानते हैं।
  • भारत में नैतिकता के सिद्धांतों को धर्म कहा जाता है – जीवन जीने की विधि।
  • जब स्वाभाव को धर्म के सिद्धांतों के अनुसार बदला जाता है, तब हमें संस्कृति और सभ्यता प्राप्त होते हैं।
  • यहाँ भारत में, हमने अपने समक्ष मानव के समग्र विकास के लिए शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा की आवश्यकताओं की पूर्ती करने की चार -स्तरीय जिम्मेदारियों का आदर्श रखा है।
  • धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष (चार पुरुषार्थ) की लालसा मनुष्यों में जन्मजात होती है और समग्र रूप में इनकी संत्सुष्टि भारतीय संस्कृति का सार हैं।
  • जब राज्य सभी शक्तियों, दोनों राजनीतिक और आर्थिक का अधिग्रहण कर लेता है, तो इसका परिणाम धर्म का पतन होता है।
  • एक देश लोगों का समूह है जो “एक लक्ष्य”, “एक आदर्श”, “एक मिशन” के साथ जीते हैं, और धरती के एक टुकड़े को मात्रभूमि के रूप में देखते हैं। यदि आदर्श या मात्रभूमि – इन दोनों में से एक भी नहीं है तो देश का कोई अस्तित्व नहीं है।

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