काका के उपदेश – काका हाथरसी

आइये प्रिय भक्तगण
उपदेश कुछ सुन लीजिये
पढ़ चुके हैं बहुत पोथी
आज कुछा गुन लीजिये
हाथ में हो गोमुखी
माला सदा हिलती रहे
नम्र ऊपर से बनें
भीतर छुरी चलती रहे

नगर से बाहर बगीचे–
में बना लें झेपड़ी
दीप जैसी देह चमके
सीप जैसी खोपड़ी
तर्क करने के लिये
आ जाए कोई सामने
खुल न जाए पोल इस–
भय से लगें मत काँपने

जीव क्या है, ब्रह्म क्या
तू कौन है, मैं कौन हूँ
स्लेट पर लिख दो ‘महोदय–
आजकल मैं मौन हूँ’
धर्मसंकट शीघ्र ही
इस युक्ति से कट जाएंगे
सामने से तार्किक विद्वान
सब हट जाएंगे।

किये जा निष्काम सेवा
सब फलेच्छा छोड़ कर
याद फल की जब सताए
खा पपीता तोड़ कर
स्वर्ग का झगड़ा गया
भय नर्क का भी छोड़ दे
पाप–घट भर जाए तो
काशी पहुँच कर फोड़ दे।

∼ काका हाथरसी

About Kaka Hathrasi

काका हाथरसी (18 सितम्बर 1906 - 18 सितम्बर 1995) हास्य कवियों में विशिष्ट हैं। काका हाथरसी का जन्म हाथरस, उत्तर प्रदेश में प्रभुलाल गर्ग के रूप में एक अग्रवाल वैश्य परिवार में हुआ। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं। 1957 में पहली बार काका दिल्ली के लाल किले में आयोजित कवि-सम्मेलन में काका को आमंत्रित किया गया। सभी आमंत्रित कवियों से आग्रह किया गया था कि वे 'क्रांति' पर कविता करें क्योंकि सन् सतावन की शताब्दी मनाई जा रही थी। अब समस्या यह थी कि 'काका' ठहरे 'हास्य-कवि' अब वे 'क्रांति' पर क्या कविता करें? 'क्रांति' पर तो वीररस में ही कुछ हो सकता था। जब कई प्रसिद्ध वीर-रस के कवियों के कविता-पाठ के बाद 'काका' का नाम पुकारा गया तो 'काका' ने मंच पर 'क्रांति का बिगुल' कविता सुनाई। काका की कविता ने अपना झंडा ऐसा गाड़ा कि सम्मेलन के संयोजक गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगाकर मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा व सराहना की। इसके बाद काका हास्य-काव्य' के ऐसे ध्रुवतारे बने कि आज तक जमे हैं।

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