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जब तुम आओगी – मदन कश्यप

नहीं खुली है वह चटाई जिसे लपेट कर रख गई हो कोने में एक बार भी नहीं बिछी है वह चटाई तुम्हारे जाने के बाद, जिसे बिछाकर धूप सेंकते थे हम जो अँगीठी तुमने जलाई थी चूल्हे में उसी की राख भरी है चीज़ें यथावत् पड़ी हैं अप्रयुक्त तुम्हारे जाने के साथ ही मेरे भीतर का एक बहुत बड़ा हिस्सा …

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जाने क्या हुआ – ओम प्रभाकर

जाने क्या हुआ कि दिन काला सा पड़ गया। चीज़ों के कोने टूटे बातों के स्वर डूब गये हम कुछ इतना अधिक मिले मिलते–मिलते ऊब गये आँखों के आगे सहसा– जाला–सा पड़ गया। तुम धीरे से उठे और कुछ बिना कहे चल दिये हम धीरे से उठे स्वयं को– बिना सहे चल दिये खुद पर खुद के शब्दों का ताला …

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इतिहास की परीक्षा – ओम प्रकाश आदित्य

इतिहास परीक्षा थी उस दिन‚ चिंता से हृदय धड़कता था, थे बुरे शकुन घर से चलते ही‚ बाँया हाथ फड़कता था। मैंने सवाल जो याद किये‚ वे केवल आधे याद हुए, उनमें से भी कुछ स्कूल तलक‚ आते आते बर्बाद हुए। तुम बीस मिनट हो लेट‚ द्वार पर चपरासी ने बतलाया, मैं मेल–ट्रेन की तरह दौड़ता कमरे के भीतर आया। …

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इस घर का यह सूना आंगन – विजय देव नारायण साही

सच बतलाना‚ तुम ने इस घर का कोना–कोना देख लिया कुछ नहीं मिला! सूना आंगन‚ खाली कमरे यह बेगानी–सी छत‚ पसीजती दीवारें यह धूल उड़ाती हुई चैत की गरम हवा‚ सब अजब–अजब लगता होगा टूटे चीरे पर तुलसी के सूखे कांटे बेला की मटमैली डालें‚ उस कोने में अधगिरे घरौंदे पर गेरू से बने हुए सहमी‚ शरारती आंखों से वे …

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रहीम के दोहे

‘रहिमन’ धागा प्रेम को‚ मत तोड़ो चटकाय टूटे से फिर ना मिले‚ मिले गांठ पड़ जाय। रहीम कहते हैं कि प्रेम का धागा न तोड़ो। टूटने पर फिर नहीं जुड़ेगा और जुड़ेगा तो गांठ पड़ जाएगी। गही सरनागति राम की‚ भवसागर की नाव ‘रहिमन’ जगत–उधार को‚ और न कोऊ उपाय राम नाम की नाव ही भवसागर से पार लगाती है। …

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फूले फूल बबूल – नरेश सक्सेना

फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार। वही शाम पीले पत्तों की गुमसुम और उदास वही रोज का मन का कुछ — खो जाने का अहसास टाँग रही है मन को एक नुकीले खालीपन से बहुत दूर चिड़ियों की कोई उड़ती हुई कतार। फूले फूल बबूल कौन सुख‚ अनफूले कचनार। जाने कैसी–कैसी बातें सुना रहे सन्नाटे सुन कर सचमुच अंग–अंग …

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प्रभाती – रघुवीर सहाय

आया प्रभात चंदा जग से कर चुका बात गिन गिन जिनको थी कटी किसी की दीर्घ रात अनगिन किरणों की भीड़ भाड़ से भूल गये पथ‚ और खो गये वे तारे। अब स्वप्नलोक के वे अविकल शीतल अशोक पल जो अब तक वे फैल फैल कर रहे रोक गतिवान समय की तेज़ चाल अपने जीवन की क्षण–भंगुरता से हारे। जागे …

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प्रेम–पगी कविता – आशुतोष द्विवेदी

दिन में बन सूर्यमुखी निकली‚ कभी रात में रात की रानी हुई। पल में तितली‚ पल में बिजली‚ पल में कोई गूढ़ कहानी हुई। तेरे गीत नये‚ तेरी प्रीत नयी‚ जग की हर रीत पुरानी हुई। तेरी बानी के पानी का सानी नहीं‚ ये जवानी बड़ी अभिमानी हुई। तुम गंध बनी‚ मकरंद बनी‚ तुम चंदन वृक्ष की डाल बनी। अलि …

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