Bhawani Prasad Mishra

भवानी प्रसाद मिश्र (जन्म: २९ मार्च १९१३ - मृत्यु: २० फ़रवरी १९८५) हिन्दी के प्रसिद्ध कवि तथा गांधीवादी विचारक थे। वे दूसरे तार-सप्तक के एक प्रमुख कवि हैं। गाँधीवाद की स्वच्छता, पावनता और नैतिकता का प्रभाव तथा उसकी झलक उनकी कविताओं में साफ़ देखी जा सकती है। उनका प्रथम संग्रह 'गीत-फ़रोश' अपनी नई शैली, नई उद्भावनाओं और नये पाठ-प्रवाह के कारण अत्यंत लोकप्रिय हुआ। थे। प्यार से लोग उन्हें भवानी भाई कहकर सम्बोधित किया करते थे। उन्होंने स्वयं को कभी भी कभी निराशा के गर्त में डूबने नहीं दिया। जैसे सात-सात बार मौत से वे लड़े वैसे ही आजादी के पहले गुलामी से लड़े और आजादी के बाद तानाशाही से भी लड़े। आपातकाल के दौरान नियम पूर्वक सुबह दोपहर शाम तीनों बेलाओं में उन्होंने कवितायें लिखी थीं जो बाद में त्रिकाल सन्ध्या नामक पुस्तक में प्रकाशित भी हुईं। भवानी भाई को १९७२ में उनकी कृति बुनी हुई रस्सी के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। १९८१-८२ में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान का साहित्यकार सम्मान दिया गया तथा १९८३ में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के शिखर सम्मान से अलंकृत किया गया।

पहली बातें – भवानी प्रसाद मिश्र

अब क्या होगा इसे सोच कर, जी भारी करने में क्या है, जब वे चले गए हैं ओ मन, तब आँखें भरने में क्या है। जो होना था हुआ, अन्यथा करना सहज नहीं हो सकता, पहली बातें नहीं रहीं, तब रो रो कर मरने में क्या है? सूरज चला गया यदि बादल लाल लाल होते हैं तो क्या, लाई रात …

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सतपुड़ा के घने जंगल – भवानी प्रसाद मिश्र

सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। झाड़ ऊँचे और नीचे, चुप खड़े हैं आँख मींचे, घास चुप है, कास चुप है, मूक शाल, पलाश चुप है; बन सके तो धँसो इनमें, धँस न पाती हवा जिनमें, सतपुड़ा के घने जंगल नींद मे डूबे हुए-से ऊँघते अनमने जंगल। सड़े पत्ते, गले पत्ते, हरे पत्ते, जले पत्ते, …

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सन्नाटा – भवानी प्रसाद मिश्र

तो पहले अपना नाम बता दूँ तुमको, फिर चुपके-चुपके धाम बता दूँ तुमको, तुम चौंक नहीं पड़ना, यदि धीमे धीमे, मैं अपना कोई काम बता दूँ तुमको। कुछ लोग भ्रान्तिवश मुझे शान्ति कहते हैं, निस्तब्ध बताते हैं, कुछ चुप रहते हैं, मैं शांत नहीं निस्तब्ध नहीं, फिर क्या हूँ, मैं मौन नहीं हूँ, मुझमें स्वर बहते हैं। कभी कभी कुछ …

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साधारण का आनंद – भवानी प्रसाद मिश्र

सागर से मिलकर जैसे नदी खारी हो जाती है तबीयत वैसे ही भारी हो जाती है मेरी सम्पन्नों से मिलकर व्यक्ति से मिलने का अनुभव नहीं होता ऐसा नहीं लगता धारा से धारा जुड़ी है एक सुगंध दूसरी सुगंध की ओर मुड़ी है तब कहना चाहिए सम्पन्न व्यक्ति व्यक्ति नहीं है वह सच्ची कोई अभिव्यक्ति नहीं है कई बातों का …

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जाहिल मेरे बाने – भवानी प्रसाद मिश्र

मैं असभ्य हूँ क्योंकि खुले नंगे पाँवों चलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि धूल की गोदी में पलता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि चीरकर धरती धान उगाता हूँ मैं असभ्य हूँ क्योंकि ढोल पर बहुत ज़ोर से गाता हूँ आप सभ्य हैं क्योंकि हवा में उड़ जाते हैं ऊपर आप सभ्य हैं क्योंकि आग बरसा देते हैं भू पर आप …

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