सती सावित्री: सत्यवान और सावित्री की लोक-कथा

नारद ने जब यह कहा की सत्यवान की आयु बस एक वर्ष की है तो सावित्री ने निष्ठा तथा आत्मविस्वास पूर्वक कहा – ‘जो कुछ होने को था सो हो चूका। ह्रदय तो बस एक ही बार चढ़ाया जाता है। जो ह्रदय निर्माल्य हो चूका उसे उसे लौटाया कैसे जाये? सती बस एक ही बार अपना ह्रदय अपने प्राण धन के चरणों में चढ़ती है!’

वह दिन आ पंहुचा जिस दिन सत्यवान के प्राण प्रयाण करने को थे। सत्यवान ने कुल्हाड़ी उठाई और जंगल में लकड़ी काटने चला। सावित्री ने कहा – “मैं भी साथ चलूंगी।” वह साथ जाती है। सत्यवान लकड़ी काटने ऊपर चढ़ता है; सर में चक्कर आने लगता है और कुल्हाड़ी निचे फेक कर वृक्ष से निचे उतरता है। सावित्री पति का सर अपनी गोद में रखकर पृथ्वी पर बैठ गयी।

घड़ी भर में उसने लाल कपडा पहने हुए, मुकुट बांधे हुए, सूर्य के समान तेज वाले, काले रंग के सुन्दर अंगो वाले, लाल लाल आँखों वाले, हाथ में फांसी की डोरी लिए भैंसे पर सवार एक भयानक पुरुष को देखा, जो सत्यवान के पास खड़ा था और उसी को देख रहा था। उसे देख कर सावित्री खड़ी हो गयी और हाथ जोड़ कर आर्त स्वर में बोली, “देवेश! आप कौन है? आप कोई देव प्रतीत होते है।”

यम ने करुणा भरे शब्दो में कहा – “तुम पतिव्रता और तपस्विनी हो, इसीलिए मैं कहता हूँ की मैं यम हूँ। सत्यवान की आयु क्षीण हो गयी है अतएव मैं उसे बांधकर ले जाऊंगा।”

सती सावित्री: सत्यवान और सावित्री की लोक-कथा
सती सावित्री: सत्यवान और सावित्री की लोक-कथा

यम ने फाँसी की डोरी में बंधे हुए अंगूठे के बराबर पुरुष को बलपूर्वक खीच लिया और उसे लेकर दक्षिण दिशा में चले। पतिव्रता सावित्री भी उसी दिशा को चली। यम ने मना किया, परन्तु सावित्री  बोली –

यत्र मे नीयते भर्ता स्वयं वा यत्र गच्छति।
मया च तत्र गन्तव्यमेष धर्मः सनातनः।।

“जहां मेरे पति स्वयं जा रहे है या दूसरा कोई उन्हें ले जा रहा हो – वही मैं भी जाउंगी – यही सनातन-धर्म है।” यम मना करते रहे और सावित्री पीछे पीछे चलती गयी। उसकी दृढ निष्ठां और अटल पतिव्रत्य ने यम को पिघला दिया और यम ने एक एक कर के वर रूप में सावित्री के अंधे ससुर को आंखे दे दी, सम्राज्य दिया, उसके पिता को सौ पुत्र दिए और सावित्री से लौट जाने के लिए कहा।

सावित्री ने अंतिम वर के रूप में सत्यवान से सौ पुत्र मांगे और अंत में ‘सत्यवान जीवित हो जाए’ यह वर भी उसने प्राप्त कर लिए।

उसके यह शब्द थे –

न कामये भर्तृविनाकृता सुखं न कामये भर्तृविनाकृता दिवम।
न कामये भर्तृविनाकृता श्रियं न भतृहिना व्यवसामि जीवितुं।। 

‘मैं पति के बिना सुख नही चाहती, बिना पति के स्वर्ग नही चाहती,
बिना पति के धन नही चाहती, बिना पति के जीना भी नही चाहती।’

यमराज वचन हार चुके थे। उन्होंने सत्यवान के सूक्ष्म शरीर को पाश मुक्त करके सावित्री को लोटा दिया। यह है मृत्यु पर विजय स्थापित करने वाली भारतीय सतीत्व – शक्ति! संसार में इसके समान उदाहरण अन्यत्र कहाँ मिलेगा? धन है पतिव्रत्य और उसकी अमोघ शक्ति।

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