स्मृति बच्चों की – वीरेंद्र मिश्र

अब टूट चुके हैं शीशे उन दरवाज़ों के
जो मन के रंग महल के दृढ़ जड़ प्रहरी हैं
जिनको केवल हिलना–डुलना ही याद रहा
मस्तक पर चिंता की तलहटियाँ गहरी हैं

कोई निर्मम तूफान सीढ़ियों पर बैठा
थककर सुस्ताकर अंधकार में ऊँघ रहा
ऊपर कोई नन्हें–से बादल का टुकड़ा
कुछ खोकर जैसे हर तारे को सूंघ रहा

यह देख खोजने लगता हूँ मैं भी नभ में
शायद तारों में छुपकर कहीं चमकते हों
मेरे अंतर के वे तारे शीशे जिनको
नभ के तारे चुपचाप छुपाकर रखते हों

लेकिन रजनी के प्रहर बीतते जाते हैं
उस अमर ज्योति के टुकड़े हाथ नहीं आते
ये नयन लौट आते हैं खाली हाथ मगर
नयनों के बिछुड़े दीपक लौट नहीं पाते

मैं जलता हूँ इसलिये कि मेरी आँखों में
उन दो नयनों के तारे चमका करते हैं
जो अपनी नन्हीं काया लेकर भस्म हुए
फिर भी जो मन–मस्तक में दमका करते हैं

वे फूल कि जिनके पृथक–पृथक आकर्षण थे
मुरझा भी सकते हैं – सोचा था नहीं कभी
मेरे भविष्य–केंद्राकर्षण इतनी जल्दी
कुम्हला भी सकते हैं – सोचा था नहीं कभी

∼ वीरेंद्र मिश्र

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