चेन्नाकेशव मंदिर, बेलूर, हासन जिला, कर्नाटक

चेन्नाकेशव मंदिर, बेलूर, हासन जिला, कर्नाटक

चेन्नाकेशव मंदिर Chennakeshava Temple, also referred to as Keshava, Kesava or Vijayanarayana Temple of Belur, is a 2nd century Hindu temple in, Hassan district of Karnataka state, India. It was commissioned by King Vishnuvardhana in 1117 BC, on the banks of the Yagachi River in Belur also called Velapura, an early Hoysala Empire capital. The temple was built over three generations and took 103 years to finish. It was repeatedly damaged and plundered during wars, repeatedly rebuilt and repaired over its history. It is 35 km from Hassan city and about 220 km from Bengaluru.

Name: चेन्नाकेशव मंदिर (KeshavaKesava or Vijayanarayana Temple of Belur)
Location: Belur, Hassan District, Karnataka, India
Deity: चेन्नाकेशव (Lord Vishnu)
Affiliation: Hinduism
Architecture: होयसल
Creator: होयसल विष्णुवर्धन (Hoysala Vishnuvardhana)
Festivals:
Completed In: 2nd Century

चेन्नाकेशव मन्दिर, बेलूर, कर्नाटक

होयसल वंशीय नरेश विष्णुवर्धन का 1117 ई. में बनवाया हुआ चेन्नाकेशव का प्रसिद्ध मन्दिर बेलूर की ख्याति का कारण है। इस मन्दिर को, जो स्थापत्य एवं मूर्तिकला की दृष्टि से भारत के सर्वोत्तम मन्दिरों में है, मुसलमानों ने कई बार लूटा किन्तु हिन्दू नरेशों ने बार-बार इसका जीर्णोद्वार करवाया।

स्थापत्य विशेषताएँ:

मन्दिर 178 फुट लम्बा और 156 फुट चौड़ा है। परकोटे में तीन प्रवेशद्वार हैं, जिनमें सुन्दिर मूर्तिकारी है। इसमें अनेक प्रकार की मूर्तियाँ जैसे हाथी, पौराणिक जीवजन्तु, मालाएँ, स्त्रियाँ आदि उत्कीर्ण हैं।

प्रवेशद्वार:

मन्दिर का पूर्वी प्रवेशद्वार सर्वश्रेष्ठ है। यहाँ पर रामायण तथा महाभारत के अनेक दृश्य अंकित हैं। मन्दिर में चालीस वातायन हैं। जिनमें से कुछ के पर्दे जालीदार हैं और कुछ में रेखागणित की आकृतियाँ बनी हैं। अनेक खिड़कियों में पुराणों तथा विष्णुवर्धन की राजसभा के दृश्य हैं। मन्दिर की संरचना दक्षिण भारत के अनेक मन्दिरों की भाँति ताराकार है। इसके स्तम्भों के शीर्षाधार नारी मूर्तियों के रूप में निर्मित हैं और अपनी सुन्दर रचना, सूक्ष्म तक्षण और अलंकरण में भारत भर में बेजोड़ कहे जाते हैं। ये नारीमूर्तियाँ मदनकई (मदनिका) नाम से प्रसिद्ध हैं। गिनती में ये 38 हैं, 34 बाहर और शेष अन्दर। ये लगभग 2 फुट ऊँची हैं और इन पर उत्कृष्ट प्रकार की श्वेत पालिश है, जिसके कारण ये मोम की बनी हुई जान पड़ती है। मूर्तियाँ परिधान रहित हैं, केवल उनका सूक्ष्म अलंकरण ही उनका आच्छादान है। यह विन्यास रचना सौष्ठव तथा नारी के भौतिक तथा आंतरिक सौन्दर्य की अभिव्यक्ति के लिए किया गया है।

भाव-भंगिमाओं के अंकन

मूर्तियों की भिन्न-भिन्न भाव-भंगिमाओं के अंकन के लिए उन्हें कई प्रकार की क्रियाओं में संलग्न दिखाया गया है। एक स्त्री अपनी हथेली पर अवस्थित शुक को बोलना सिखा रही है। दूसरी धनुष संधान करती हुई प्रदर्शित है। तीसरी बाँसुरी बजा रही है, चौथी केश-प्रसाधन में व्यस्त है, पाँचवी सद्यः स्नाता नायिका अपने बालों को सुखा रही है, छठी अपने पति को तांबूल प्रदान कर रही है और सातवीं नृत्य की विशिष्ट मुद्रा में है।

इन कृतियों के अतिरिक्त बानर से अपने वस्त्रों को बचाती हुई युवती, वाद्ययंत्र बजाती हुई मदविह्वला नवयौवना तथा पट्टी पर प्रणय सन्देश लिखती हुई विरहिणी, ये सभी मूर्तिचित्र बहुत ही स्वाभाविक तथा भावपूर्ण हैं। एक अन्य मनोरंजक दृश्य एक सुन्दरी बाला का है, जो अपने परिधान में छिपे हुए बिच्छू को हटाने के लिए बड़े संभ्रम में अपने कपड़े झटक रही है। उसकी भयभीत मुद्रा का अंकन मूर्तिकार ने बड़े ही कौशल से किया है। उसकी दाहिनी भौंह बड़े बाँके रूप में ऊपर की ओर उठ गई है और डर से उसके समस्त शरीर में तनाव का बोध होता है। तीव्र श्वांस के कारण उसके उदर में बल पड़ गए हैं, जिसके परिणामस्वरूप कटि और नितम्बों की विषम रेखाएँ अधिक प्रवृद्ध रूप में प्रदर्शित की गई हैं।

कला की चरमावस्था:

मन्दिर के भीतर की शीर्षाधार मूर्तियों में देवी सरस्वती का उत्कृष्ट मूर्तिचित्र देखते ही बनता है। देवी नृत्यमुद्रा में है जो विद्या की अधिष्ठात्री के लिए सर्वथा नई बात है। इस मूर्ति की विशिष्ट कलाकी अभिव्यजंना इसकी गुरुत्वाकर्षण रेखा की अनोखी रचना में है। यदि मूर्ति के सिर पर पानी डाला जाए तो वह नासिका से नीचे होकर वाम पार्श्व से होता हुआ खुली वाम हथेली में आकर गिरता है और वहाँ से दाहिने पाँव मे नृत्य मुद्रा में स्थित तलवे (जो गुरुत्वाकर्षण रेखा का आधार है) में होता हुआ बाएँ पाँव पर गिर जाता है। वास्तव में होयसल वास्तु विशारदों ने इन कलाकृतियों के निर्माण में मूर्तिकारी की कला को चरमावस्था पर पहुँचा कर उन्हें संसार की सर्वश्रेष्ठ शिल्पकृतियों में उच्चस्थान का अधिकारी बना दिया है।

1433 ई. में ईरान के यात्री अब्दुल रज़ाक ने इस मन्दिर के बारे में लिखा था कि वह इसके शिल्प के वर्णन करते हुए डरता था कि कहीं उसके प्रशंसात्मक कथन को लोग अतिशयोक्ति न समझ लें।

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