17 मार्च - बलिदान दिवस - आजाद हिन्द फौज के सेनानी लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट

17 मार्च – बलिदान दिवस – आजाद हिन्द फौज के सेनानी लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट

द्वितीय विश्व युद्ध में अंग्रेजों एवं मित्र देशों की सामरिक शक्ति अधिक होने पर भी आजाद हिन्द फौज के सेनानी उन्हें कड़ी टक्कर दे रहे थे. लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट भी ऐसे ही एक सेनानायक थे, जिन्होंने अपने से छह गुना बड़ी अंग्रेज टुकड़ी को भागने पर मजबूर कर दिया.

16 मार्च, 1945 को ‘सादे पहाड़ी के युद्ध’ में भारतीय सेना की ए कंपनी ने कैप्टेन खान मोहम्मद के नेतृत्व में अंग्रेजों को पराजित किया था. इससे चिढ़कर अंग्रेजों ने अगले दिन आजाद हिन्द फौज की बी कंपनी पर हमला करने की योजना बनाई.

सिंगापुर के आफिसर्स ट्रेनिंग स्कूल में प्रशिक्षित लेफ्टिनेंट ज्ञानसिंह बिष्ट इस कंपनी के नायक थे. वे बहुत साहसी तथा अपनी कंपनी में लोकप्रिय थे. वे अपने सैनिकों से प्रायः कहते थे कि मैं सबके साथ युद्ध के मैदान में ही लड़ते-लड़ते मरना चाहता हूं.

यह बी कंपनी सामरिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण स्थान पर तैनात थी. तीन सड़कों के संगम वाले इस मार्ग के पास एक पहाड़ी थी, जिस पर शत्रुओं की तोपें लगी थीं. बी कंपनी में केवल 98 जवान थे. उनके पास राइफल और कुछ टैंक विध्वंसक बम ही थे, पर लेफ्टिनेंट बिष्ट का आदेश था कि किसी भी कीमत पर शत्रु को इस मार्ग पर कब्जा नहीं करने देना है.

17 मार्च, 1945 को प्रातः होते ही अंग्रेजों ने अपनी तोपों के मुंह खोल दिये. उसकी आड़ में वे अपनी बख्तरबंद गाडि़यों में बैठकर आगे बढ़ रहे थे. खाइयों में मोर्चा लिये भारतीय सैनिकों को मौत की नींद सुलाने के लिये वे लगातार गोले भी बरसा रहे थे. साढ़े बारह बजे आगे बढ़ती हुई अंग्रेज सेना दो भागों में बंट गयी.

एक ने ए कंपनी पर हमला बोला और दूसरी ने बी कंपनी पर. बी कंपनी के सैनिक भी गोली चला रहे थे, पर टैंक और बख्तरबंद गाड़ियों पर उनका कोई असर नहीं हो रहा था. लेफ्टिनेंट बिष्ट के पास अपने मुख्यालय पर संदेश भेजने का कोई संचार साधन भी नहीं था.

जब लेफ्टिनेंट बिष्ट ने देखा कि अंग्रेजों के टैंक उन्हें कुचलने पर तुले हैं, तो उन्होंने कुछ बम फेंके, पर दुर्भाग्यवश वे भी नहीं फटे. यह देखकर उन्होंने सब साथियों को आदेश दिया कि वे खाइयों को छोड़कर बाहर निकलें और शत्रुओं को मारते हुए ही मृत्यु का वरण करें.

सबसे आगे लेफ्टिनेंट बिष्ट को देखकर सब जवानों ने उनका अनुसरण किया. ‘भारत माता की जय’ और ‘नेता जी अमर रहें’ का उद्घोष कर वे समरांगण में कूद पड़े. टैंकों के पीछे अंग्रेज सेना की पैदल टुकडि़यां थीं. भारतीय सैनिक उन्हें घेर कर मारने लगे. कुछ सैनिकों ने टैंकों और बख्तरबंद गाड़ियो पर भी हमला कर दिया.

दो घंटे तक हुए आमने-सामने के युद्ध में 40 भारतीय जवानों ने प्राणाहुति दी, पर उनसे चौगुने शत्रु मारे गये. अपनी सेना को तेजी से घटते देख अंग्रेज भाग खड़े हुए. लेफ्टिनेंट बिष्ट उन्हें पूरी तरह खदेड़ने के लिये अपने शेष सैनिकों को एकत्र करने लगे. वे इस मोर्चे को पूरी तरह जीतना चाहते थे. तभी शत्रु पक्ष की एक गोली उनके माथे में लगी. जयहिंद का नारा लगाते हुए वे वहीं गिर पड़े और तत्काल ही उनका प्राणांत हो गया.

लेफ्टिनेंट बिष्ट के बलिदान से उनके सैनिक उत्तेजित होकर गोलियां बरसाते हुए शत्रुओं का पीछा करने लगे. अंग्रेज सैनिक डरकर उस मोर्चे को ही छोड़ गये और फिर लौटकर नहीं आये. लेफ्टिनेंट बिष्ट ने बलिदान देकर जहां उस महत्वपूर्ण सामरिक केन्द्र की रक्षा की, वहीं उन्होंने सैनिकों के साथ लड़ते हुए मरने का अपना संकल्प भी पूरा कर दिखाया.

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