अन्तर्द्वन्द: द्वन्द्व का अर्थ, प्रकार और मुख्य स्रोत

अन्तर्द्वन्द: द्वन्द्व का अर्थ, प्रकार और मुख्य स्रोत

अन्तर्द्वन्द का अर्थ

“परस्पर विरोधी इच्छाएं, आदर्श तथा लक्ष्य उपस्थित होने पर तत्सम्बन्धी सही चुनाव या सही निर्णय लेने में अपने आपको असमर्थ पाना।” द्वन्द्व ही मानव की निराशाओं का मूल स्रोत माना गया है, क्योंकि द्वन्द्व में लक्ष्य की प्राप्ति में विलम्ब या बाधा उत्पन्न होती है। मन में ‘किंकर्त्तव्यविमूढ़मता‘ को स्थिति बन जाती है। तब भय, चिता, व्यवहार में लचीलेपन का अभाव, मानसिक तनाव आदि उत्पन्न होते हैं। द्वन्द्व आंतरिक होने से कठिन माना गया है।

We are constantly faced with situations in which we have to resolve conflict in order to behave appropriately. What are the mechanisms that help us resolve conflict? Is there but one, or are there many?

द्वन्द्व के प्रकार: (अन्तर्द्वन्द)

  1. सकारात्मक
  2. नकारात्मक
  3. दो परस्पर विरोधी लक्ष्य लेना, (जैसे मक्खन खाने की इच्छा है पर मोटापा बढने का डर है), कम मक्खन खाएं या मोटापे की परवाह न करके खूब मक्खन खाऊं)। इसी तरह भूख के बारे में कहा जा सकता है कि भूख खुलकर नहीं लग रही है। भोजन करूँ या न करूँ।

द्वन्द्व के कुछ मुख्य स्रोत:

  1. लक्ष्य प्राप्ति: अनेक बार ऐसी स्थिति पैदा होती है कि लक्ष्य प्राप्ति होने की अवस्था में अन्य लोगों को निराशा का सामना करना पड़ता है। फलतः व्यक्ति के मैत्रीपूर्ण संबंधों को खतरा पैदा हो जाता है। इसका योग में यह उपाय है – यश-अपयश को समभाव से लें। गीता में कहा गया है: ‘सुख दु:खे समेकृत्वा लाभौ जयाजयौ
  2. आजादी: जो व्यक्ति माता-पिता के साथ रहने के कारण इस द्वन्द्व में घिर जाते हैं कि उनके साथ रहने में आजादी नहीं है। हम अपनी मनमर्जी नहीं कर सकते। यहां रहें या अलग हो जाएं। निर्णय लेने की यह विधि अपनाएं। शांत बैठे। श्वास को सामान्य करें। श्वास को आते-जाते अनुभव करें। मन के शांत होते ही प्रश्न अपने आप से करें। अपने अंदर से उत्तर आएगा। वह आत्मा से होगा। यदि चंचल मन से निर्णय हो तो वह सही न होगा।
  3. नैतिकता का दबाव: युवा यदि अपनी यौन सम्बंधी इच्छाओं को पूरा न कर पाए तो द्वन्द्व पैदा हो सकता है। योग में इस द्वन्द्व से बचने का उपाय ब्रह्मचर्य का पालन करना तथा अन्य यौगिक क्रियाएं (यम-नियम आसन, प्राणायाम, ध्यान) का अभ्यास करने से भी वह युवा सकारात्मक संयम का पालन कर सकता है।
  4. शत्रुता की भावना: यदि कोई व्यक्ति जाने-अनजाने में कार्य में बाधा डालता है तो उसके प्रति शत्रुता का भाव उठना स्वाभाविक है। परन्तु शत्रुता निबाहना समाज में अच्छा नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में द्वन्द्व पैदा होता है कि दुश्मनी निकालें या नहीं और घुटते रहें, सहते रहें। ऐसे में, क्षमा करना बेहतर रहेगा।

इसका उपाय है पतंजली के सूत्र – ‘वितर्क बाधने प्रतिपक्ष भावनम्।’ अर्थात् वितर्क उत्पन्न होने पर ठीक विरुद्ध भावना का उपयोग करना चाहिए। अतः शत्रुता के बदले प्रेम तथा सहानुभूति के भाव मन में जगाने चाहिएं। यह तरीका कठिन अवश्य है परंतु असम्भव नहीं। डॉ. करबेलकर के अनुसार, “यदि अधिक से अधिक समय दूसरों के प्रति अच्छे भाव रखेंगे तो अवश्य हो शत्रुता की भावना कम हो जाएगी। योग दर्शन के सिद्धान्तों की समझ आने पर द्रष्टा, साक्षीभाव, अलिप्तता के भाव पैदा होने लगते हैं। क्रिया योग का नियमित अभ्यास करने से भी हमारा दृष्टिकोण (विश्व के प्रति, समाज के प्रति तथा जीवन के प्रति) विशालतर और वस्तुनिष्ठ (objective) होता जाएगा। इस तरह स्वाभाविक रूप से हम अनेक द्वन्द्व से छुटकारा पा सकते हैं।”

~ अन्तर्द्वन्द by उमा प्रसाद कौशल [Mobile:9911614478]

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