रम्भा – रामधारी सिंह दिनकर

सहजन्ये! पर, हम परियों का इतना भी रोना क्या?
किसी एक नर के निमित्त इतना धीरज खोना क्या?

प्रेम मानवी की निधि है अपनी तो वह क्रीड़ा है;
प्रेम हमारा स्वाद, मानवी की आकुल पीड़ा है

जनमीं हम किस लिए ? मोद सब के मन मे भरने को।
किसी एक को नहीं मुग्ध जीवन अर्पित करने को।

सृष्टि हमारी नहीं संकुचित किसी एक आनन में।
किसी एक के लिए सुरभि हम नहीं सँजोतीं तन में।

रचना की वेदना जगा जग में उमंग भरती है,
कभी देवता, कभी मनुज का आलिंगन करती है

देतीं मुक्त उँड़ेल अधर –मधु ताप–तप्त अधरों में,
सुख से देतीं छोड़ कनक –कलशों को उष्ण करों में;

पर, यह तो रसमय विनोद है, भावों का खिलना है,
तन की उद्वेलित तरंग पर प्राणों का मिलना है।

हम तो हैं अप्सरा पवन में मुक्त विहरने वाली,
गीत–नाद, सौरभ–सुभास से सब को भरनेवाली।

अपना है आवास, न जाने कितनों की चाहों में,
कैसे हम बँध रहे किसी भी नर कीं दो बाँहों में?

∼ रामधारी सिंह ‘दिनकर’

About Ramdhari Singh Dinkar

राष्ट्रकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (२३ सितंबर १९०८- २४ अप्रैल १९७४) हिन्दी के एक प्रमुख लेखक, कवि व निबन्धकार थे। वे आधुनिक युग के श्रेष्ठ वीर रस के कवि के रूप में स्थापित हैं। बिहार प्रान्त के बेगुसराय जिले का सिमरिया घाट उनकी जन्मस्थली है। उन्होंने इतिहास, दर्शनशास्त्र और राजनीति विज्ञान की पढ़ाई पटना विश्वविद्यालय से की। उन्होंने संस्कृत, बांग्ला, अंग्रेजी और उर्दू का गहन अध्ययन किया था। ‘दिनकर’ स्वतन्त्रता पूर्व एक विद्रोही कवि के रूप में स्थापित हुए और स्वतन्त्रता के बाद राष्ट्रकवि के नाम से जाने गये। वे छायावादोत्तर कवियों की पहली पीढ़ी के कवि थे। एक ओर उनकी कविताओ में ओज, विद्रोह, आक्रोश और क्रान्ति की पुकार है तो दूसरी ओर कोमल श्रृंगारिक भावनाओं की अभिव्यक्ति है। इन्हीं दो प्रवृत्तियों का चरम उत्कर्ष हमें उनकी कुरुक्षेत्र और उर्वशी नामक कृतियों में मिलता है। उर्वशी को भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार जबकि कुरुक्षेत्र को विश्व के १०० सर्वश्रेष्ठ काव्यों में ७४वाँ स्थान दिया गया।

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