जीवन दर्शन – काका हाथरसी

मोक्ष मार्ग के पथिक बनो तो
मेरी बातें सुनो ध्यान से,
जीवन–दर्शन प्राप्त किया है
मैने अपने आत्मज्ञान से।

लख चेोरासी योेनि धर कर
मानव की यह पाई काया,
फिर क्यों व्रत, उपवास करूँ मैं
इसका समाधान ना पाया।

इसलिए मैं कभी भूलकर
व्रत के पास नहीं जाता हूँ,
जिस दिन एकादश होती है
उस दिन और अधिक खाता हूँ।

क्योंकि ब्रह्म है घट के पट में
उसे तुष्ट करना ही होगा,
यह काया प्रभु का मंदिर है
उसे पुष्ट करना ही होगा।

गंगा–यमुना और त्रिवेणी
में क्यों व्यर्थ लगाते गोते,
इस वैज्ञाानिक युग मे भी
गंगाजल से पापों को धोते?

मैं अपनी कोमल काया को
किचिंत कष्ट नहीं देता हूँ,
पाप इकट्टे हो जाते तब
ड्राईक्लीन करवा लेता हूँ!

∼ काका हाथरसी

About Kaka Hathrasi

काका हाथरसी (18 सितम्बर 1906 - 18 सितम्बर 1995) हास्य कवियों में विशिष्ट हैं। काका हाथरसी का जन्म हाथरस, उत्तर प्रदेश में प्रभुलाल गर्ग के रूप में एक अग्रवाल वैश्य परिवार में हुआ। उनकी शैली की छाप उनकी पीढ़ी के अन्य कवियों पर तो पड़ी ही, आज भी अनेक लेखक और व्यंग्य कवि काका की रचनाओं की शैली अपनाकर लाखों श्रोताओं और पाठकों का मनोरंजन कर रहे हैं। 1957 में पहली बार काका दिल्ली के लाल किले में आयोजित कवि-सम्मेलन में काका को आमंत्रित किया गया। सभी आमंत्रित कवियों से आग्रह किया गया था कि वे 'क्रांति' पर कविता करें क्योंकि सन् सतावन की शताब्दी मनाई जा रही थी। अब समस्या यह थी कि 'काका' ठहरे 'हास्य-कवि' अब वे 'क्रांति' पर क्या कविता करें? 'क्रांति' पर तो वीररस में ही कुछ हो सकता था। जब कई प्रसिद्ध वीर-रस के कवियों के कविता-पाठ के बाद 'काका' का नाम पुकारा गया तो 'काका' ने मंच पर 'क्रांति का बिगुल' कविता सुनाई। काका की कविता ने अपना झंडा ऐसा गाड़ा कि सम्मेलन के संयोजक गोपालप्रसाद व्यास ने काका को गले लगाकर मुक्तकंठ से उनकी प्रशंसा व सराहना की। इसके बाद काका हास्य-काव्य' के ऐसे ध्रुवतारे बने कि आज तक जमे हैं।

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