एहसास - मनोज कुमार ‘मैथिल’

एहसास – मनोज कुमार ‘मैथिल’

Kiteतेज़ी से ऊपर उठती पतंग
मानो जैसे आकाश को चीर
आज उसकी थाह लेकर रहेगी
आज, वो सब कुछ पाकर रहेगी
जिसकी उसे तमन्ना थी।

हवा भी
उसकी मृग-तृष्णा के वेग को
पुरजोर रूप से बढ़ा रही थी
आज हवा ही उसकी परम मित्र थी
जिसकी सहायता से वो
शीघ्र अति शीघ्र अपनी मंज़िल
पा लेगी।
पर एक चीज़ उसके वेग को
अवरुद्ध कर रही थी
वो थी डोर।

जो आसमान में उसके साथ
रहते हुए भी जमीं पर थी
जो उसे अपनी मृग-तृष्णा
शांत करने में
बाधक प्रतीत हो रही थी।

आज वह उस डोर और जमीं से
नाता तोड़ देना चाहती थी
जिससे वह वेग को
कदापि कम न कर सके
हवा ने पतंग से मित्रता निभाई
एक तेज़ झोंकें के साथ
पतंग डोर से अलग हो गयी
जैसा वह चाहती थी।

पर–
अब वह ऊपर की बजाय
नीचे की ओर आ रही थी
उसी जमीं की गोद में
जिसको छोड़ने की उसने
तमन्ना की थी।

अब पतंग को अपनी भूल
का एहसास हो रहा था
वह सखा व शत्रु को पहचान रही थी।

इस वास्तविकता से
परिचित हो चुकी थी
कि अपनी जमीं को छोड़
जमीं और अपने बीच की
डोर को तोड़
कोई ऊंचाई नहीं छू सकता
जमीं को छोड़ने पर
हवा भी उसका साथ
नहीं देती है।

अब जब भी कोई पतंग उड़ेगी
उसे ऊंचाई को छूने के लिए
जमीं का सहारा लेना पड़ेगा
अन्यथा उसे नीचे गिरते
देर न लगेगी।

∼ मनोज कुमार ‘मैथिल’

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