Navratri Festival Celebrations: Then and Now नवरात्र का बदलता स्वरुप

नवरात्र का बदलता स्वरुप: मंजरी शुक्ला

“वंदे भूतेश मातृ रूपेण संस्थिता नमस्तस्यै नम नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:।”

हिंदू संस्कृति में मातृ स्थान प्रथम है। सनातन आदि काल से नवरात्र पूजा चली आ रही है। पितृपक्ष की समाप्ति के दूसरे ही दिन कलश स्थापना के साथ ही माँ दुर्गा की आराधना प्रारंभ हो जाती हैं। दुर्गा पूजा का पर्व भारतीय सांस्कृतिक पर्वों में सबसे ज़्यादा लोकप्रिय है। सर्वप्रथम श्रीरामचंद्रजी ने इस शारदीय नवरात्रि पूजा का प्रारंभ समुद्र तट पर किया था और रावण नें भी युद्ध के दौरान देवी के अनुष्ठान किये थे और दोनों ही से इन अनुष्ठानो को विफल करने की कोशिश का जिक्र भी हमें मिलता हैं। पर राम के प्रमुख योद्धा हनुमानजी, रावण का अनुष्ठान भंग करने में सफल रहे जबकि रावण राम का अनुष्ठान भंग नहीं कर सका। और उन्होंने दसवें दिन लंका विजय के लिए प्रस्थान किया और विजय प्राप्त की।

भक्तो का अटूट विश्वास और श्रद्धा ही उनको माता के दरबार ले आती हैं क्योंकि जब भी कोई भक्त उसे सरल ह्रदय से पुकारता हैं तो माँ वहाँ प्रकट हो जाती हैं। यह मात्र किवंदती नहीं हैं बल्कि परोक्ष रूप से माँ जगदम्बा के अनेको भक्तो ने इसका साक्षात् अनुभव किया हैं। यूँ तो हम कन्या को माँ दुर्गा का स्वरुप मानते हैं। पर जिस माँ की आराधना करने के लिए हम मंदिरों और शक्तिपीठों में घंटो भक्ति भाव से लाइन लगाये खड़े रहते हैं, उसी के जीते जागते स्वरुप को समाज का एक बड़ा वर्ग इन नौ दिनों के अलावा सारे साल लड़की होने का ताना मारता रहता हैं। नवरात्र में हम कन्याओं का इतना आदर और सम्मान करते हैं पर जैसे ही ये नौ दिन ख़त्म होते हैं हम वापस अपनी दकियानूसी सोच पर आ जाते हैं। किसी के अगर केवल एक कन्या होती हैं तो अड़ोसी से लेकर पडोसी तक के दुखों की कोई सीमा नहीं होती हैं। वे बार बार कटाक्ष करने से बाज नहीं आते अरे तो बस ये लड़की? और मासूम बचपन इसी सोच के साथ बड़ा हो जाता हैं की उसकी कोई उपयोगिता नहीं हैं।

आज “देवी” के दुःख से अनजान समाज उसे जड़ से उखाड़ फेकने पर ही आमादा हैं। अनजान बनकर देवी की करुण पुकार और उन दर्दभरी चीखों को भी अनसुनी कर रहा हैं। जो अपने अस्तित्व को बचाने के लिए गुहार लगा रही हैं। पाखंडियो का तो आलम ये हैं कि नवरात्र के दिनों में अगर अनजाने में किसी कन्या को पैर छू जाये तो तुरंत कानों पर हाथ रखकर माँ भगवती से माफी मांगते हैं परइन नौ दिनों के बीत जाने के बाद उसे लड़की होने का अक्षम्य अपराध का ताना अगली दुर्गा पूजा तक सुनना पड़ता हैं। हर वर्ष ये देखने व सुनने में आता हैं कि स्त्रियों के साथ जो अत्याचार और अपराध वर्ष भर होते हैं उनका ग्राफ एकदम से इन नौ दिनों में गिर जाता हैं। क्या ऐसा नहीं हो सकता की देवी जी अपने “तीन सौं पैसठ” रूप कर ले और समाज से स्त्री का शोषण बंद हो जाए?

मुझे याद आता हैं मेरा बचपन जिसमे नवमी के दिन का मुझे और मेरी सहेलियों को बेसब्री से इंतज़ार रहता था। बहुत ही प्यारऔर दुलार के साथ बुलाकर हमें बुलाया जाता। बुलावा तो मात्र नौ लडकियों को दिया जाता था पर हर घर से हम मिलती – जुलती कब बीस लड़कियों की टोली बन जाती हम जान ही न पाते। जिस पर भी कइयो को हमें जबरदस्ती छोड़ना पड़ता। इसमें हमारे साथ एक लंगूर का होना भी बड़ा जरूरी होता था और वो हमें बड़ी मुश्किल से मिलता था। हम जैसे ही उनके घर पहुँचते वे हमें देखते बहुत खुश हो जाते और दरवाजे पर ही एक बड़ी सी परात में हमारे पैर धोते। फिर एक साफ़ सूती कपड़े से थपथपाकर हमारे पैर सुखाये जाते। उस अलोकिक अनुभूति का शब्दों में वर्णन करना बड़ा ही कठिन हैं। हम सब सहेलियाँ एक दूसरे को देखकर इतराती और मुस्कुराती।

Kanya Puja

उसके बाद शुरू होता मनुहार का सिलसिला क्योंकि बहुत सारे घरों में खा-खाकर हमारा पेट नाक तक भर गया होता था। पर उनके प्यार और अपनेपन की सबूत थे उनकी वो मीठी बोली जो कई वर्ष बीत जाने के बाद भी मानों आज तक कानों में अमृत घोलती हैं। उनमें से एक चाची कहा करती थी – “अरे, रोडवा पर जो बस दौड़ती हैं ना, वो कितनो ही फुल हो जावे कंडक्टरवा की सिट्वा हमेसा खाली रहत हैं।” और हमें हँसते हुए जबरदस्ती वो प्यार भरा कौर खाना ही पड़ता। और आखिरी में हमें एक रुपये का चमचमाता सिक्का मिलता जिसे पाकर हमारे अन्दर एक नई उर्जा का संचार हो जाता और हमारे कदमों में हिरन सी चौकड़ी भरने की फुर्ती आ जाती। हाँ, तो मैं आपको बता रही थी कि बुलाया तो नौ लड़कियों को जाता था पर अधिकतर बीस से ऊपर ही पहुँचती। पर आज के दौर में ये हालत हो गई हैं कि जब नवमी के दिन नौ कन्याए ढूँढी जाती हैं तो पहले से दस घरों में कहना पड़ता हैं तब कही जाकर बमुश्किल नौ कन्याए इकट्ठी होती हैं।

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