बनते बिगड़ते रिश्तों की अनकही कहानी: रिश्ता

रिश्ता: बनते बिगड़ते रिश्तों की अनकही कहानी

शानू, असलम चाचू आये है जरा दो कप चाय तो बनाकर लाना।

“अदरक वाली… कड़क…” असलम चाचा बोले, जिन्हें मैं प्यार से चाचू बोलती थी।

“घर में तो अदरक की फैक्टरी लगी है ना… अभी अभी कई देशों में भेजी है हमने…” कहते हुए दादी के पूजा घर में घंटे और घड़ियाल जोरों से घर में बजने लगे थे।

मैंने चाचू की ओर देखा तो वह मुस्कुराते हुए बोले – “बीस सालों से अम्मा की यहीं बातें, अब तो कुरान की आयतें लगनी है। जहाँ प्यार होता है, वहीँ इतने प्यार और हक़ से कोई बोल सकता है”।

पापा चाचू की पीठ पर प्यार से धौल जमाते हुए बोले – “हाँ… इतना जबरदस्त प्यार है कि सारे वेद और पुराण मेरी आँखों के आगे नाच जाते है”।

बनते बिगड़ते रिश्तों की अनकही कहानी: रिश्ता – “भगवान् के लिए मुझे मेरी ही नज़रों में और ना गिराओ”

यह सुनकर मैं ठहाका मारकर हँस पड़ी और चाय बनाने के लिए चल दी।

चाय के पानी में उबाल आते ही मैं अदरक घिसकर डालने लगी।

तभी पीछे से चाचू की आवाज़ आई – “जरा अच्छी तरह खौला देना बिटिया… वो क्या है कि आजकल थोड़ी सर्दी है हमको…”।

“हाँ… हाँ… दिनभर खौलायेंगे… सिलेंडर के पैसे तो तुम ही देते हो ना” पूजाघर से दादी की आवाज़ आई।

“माँ… तुम थोड़ा ध्यान तो अपनी पूजा में भी लगाओ वरना भगवान क्या सोचेंगे” पापा धीरे से बोले।

पता नहीं दादी ने यह बात सुनी या नहीं पर अब वह घंटी के साथ साथ शंख भी बजाने लगी थी।

चाचू के आते ही दादी का बड़बड़ाना शुरू हो जाता था। वह उन्हें फूटी आँख भी नहीं भाते थे। पर पापा थे कि चाचू के बिना रह ही नहीं पाते थे। बीस साल में ऐसा कोई दिन नहीं गया था कि वह चाचू से ना मिले हो। कभी कभी मै आश्चर्य से पूछती – “आप लोग क्या कभी दूसरे शहर भी नहीं जाते थे।”

इस पर दोनों दोस्त ठहाका मारकर हँसते-हँसते दोहरे हो जाते और बात टाल देते।

वो तो दादी ने एक दिन गुस्से में बताया कि वैसे तो तेरे दादाजी कभी बाहर ले नहीं जाते थे क्योंकि पहले के ज़माने में ये “मूड फ्रेस” करने जैसे चोंचले होते ही नहीं थे। घर भर की गालियाँ खाकर भी हमारा मूड खराब नहीं होता था क्योंकि तब काम ही काम होता था और इतना ज़्यादा होता था कि सोचते थे सामने वाला जल्दी से जी भर कर चिल्ला ले तो हम अपनी सवारी वापस चौके में ले जाए। दिन भर खाकर भी सब भूखे ही बने रहते थे, नहीं खाते तो पता नहीं कौन सा ताँडव करते।

दादी की चटपटी बातें सुनकर मैं लोट-लोट कर हँसती।

दादी मुझे हँसते देखकर बहुत खुश होती थी। माँ के नहीं रहने के बाद, दादी ने मेरे आँसुओं को अपनी आँखों में छिपा लिया था।

परछाई की तरह साथ रहकर दिन रात संभालते हुए वह दादी से कब माँ बन गई थी, वह शायद खुद भी नहीं जान पाई थी।

“पर दादी मेरा प्रश्न तो वहीँ का वहीँ रह गया” मैं उन्हें याद दिलाती हुई बोली।

“हाँ… बता रहीं हूँ… कौन सा तेरी परीक्षा का प्रश्न है जो उतने ही शब्दों में बताना है, कहते हुए दादी झट से घर में बनाये हुए बदबूदार तेल की शीशी लेकर आ जाती थी जो उन्होंने भृंगराज, आँवला और भी ना कितनी काली और अजीब सी औषधियों को उबालकर बनाया होता था। वह बहुत अच्छे से जानती थी कि मैं उस तेल से सख़्त नफ़रत करती हूँ इसलिए दो मिनट के किस्से कहानियाँ सुनाने में भी वह घंटों लगा देती थी और मुझे मज़बूरी में नाक में रुमाल लगाकर वह तेल लगवाना पड़ता था क्योंकि आधी बात सुने बिना मुझे चैन नहीं था। मेरे पेट में रंगबिरंगी तितलियाँ उड़ने लगती थी। हाँ, यह बात और थी कि मेरी सभी सहेलियों में मेरे बाल सबसे लम्बे, घने और काले थे शायद यह दादी के उस बदबूदार नुस्ख़े का ही कमाल था

तो जैसे ही दादी ने तेल लगाना शुरू किया, कहने लगी – “तेरे पापा की जिद रहती थी कि या तो उसको भी अपने साथ ले चलो या फिर चलो ही नहीं…”।

दादी चाचू का नाम तक नहीं लेती थी इसलिए मैं दादी को चिढ़ाते हुए पूछती – “उसे कौन… दादी… किसे…”।

“चल अब ज़्यादा मत बन… आगे सुन, तो फिर हमें पूरा कार्यक्रम ही कैंसल करना पड़ता था। भला, अब अपने साथ किसी गैर के लड़के को कहाँ टाँगे टाँगे घूमते। यही हाल उसके घर का भी था। उसके माँ बाप भी तेरे महान पिताजी के कारण कहीं नहीं घूम पाए। इन दोनों ने मिलकर ज़िंदगी तबाह कर दी सबकी। शनि बनकर बैठ गए थे सबकी कुंडली में…” दादी बड़बड़ाती हुई कहती।

और मै मन ही मन पापा और चाचू की दोस्ती पर रश्क खाते हुए सोचती – “काश मेरा भी ऐसा कोई दोस्त होता जो मुझे इतना प्यार करता”।

जैसे ही दादी के बात पूरी होती मै जान छुड़ाकर भागती चाहे मेरी एक चोटी बनी हो या आधी…

इसी तरह से हमारे दिन हँसी ख़ुशी से बीतते जा रहे थे।

मेरे इक्कीसवे जन्मदिन पर दादी ने अचानक रसोईघर में खाना पकाते समय ऐलान कर दिया कि अब शानू का ब्याह रचा दो वरना मैं घर छोड़कर चली जाउंगी”।

पापा ने चिढ़ाते हुए कहा – “मेरी प्यारी माँ, जहाँ जाओ, मुझे भी ले चलना, इतने सालों में तुम मुझे कभी कहीं घुमाने नहीं ले गई”।

दादी कुछ कहती इससे पहले ही मैंने दादी से लड़ियाते हुए कहा – ” लोग तो पागल होते है जो लड़की को शादी करके विदा करते है बल्कि होना तो यह चाहिए कि लड़का शादी में उपहारों से लदा फदा आए और लड़की की माँ का घर के कामों में हाथ बटाएं।

“तुम्हारा दिमाग पूरी तरह से खराब हो गया है” दादी बोली।

“नहीं दादी… लोग पागल हो गए है” मैंने हँसते हुए कहा।

“पागलखाने में सारे पागल डॉक्टर को भी पागल ही समझते है…” दादी चूल्हें पर रोटी सेंकते हुए बोली।

पर दादी की चिंता पापा को भी सही लगने लगी थी। वह कुछ सोचते हुए उस समय घर से टहलने का कहकर निकल गए। आख़िर चाचू के साथ कई दिन दौड़धूप करके, उन्होंने मेरे लिए एक लड़का ढूँढ ही लिया जो पूरी तरह से उनके मापदंडों पर खरा उतरता था।

वे मापदंड इतने अजीबो गरीब थे जो शायद पापा के अलावा किसी और के दिमाग में, आये भी नहीं होंगे।

जैसे शादी के लिए उसी गाँव का लड़का होना, लड़के के पिता का उनकी कहीं से जान पहचान होना, उस दोस्त को अपनी बहू यानी मुझे, हर रविवार दादी से मिलाने लाना… मैं जानती थी कि दादी के बहाने पापा अपने लिए कह रहे थे। अगर मैं आधे घंटे भी पापा को दिखाई ना दूँ तो वह बैचेन होने लगते थे और यहाँ तो मैं पूरी ज़िंदगी के लिए उनसे लुका छिपी खेलने के लिए जा रही थी। कुल मिलकर सारी गेंदे अपने पाले में कर लेने के बाद पापा ने शादी की तैयारियाँ जोरों शोरों से शुरू कर दी थी।

पापा ने चाचू के साथ जाकर शहर की दुकानों के चक्कर लगाने शुरू कर दिए थे और दादी दिन भर में कम से दस बार अपनी जँग लगी संदूकचियों को खोलती और बंद करती।

जहाँ शादी के पहले मैंने अपनी सभी सहेलियों को शर्माते और खिलखिलाते हुए देखा था, वहीँ मेरी शादी में पापा और दादी को देख मेरा मन भर आता था। दोनों हर बात में बस मेरा ही मुँह देखते रहते थे। क्या सब्ज़ी बननी है, क्या मिठाई आनी है, कौन से रंग की चादरें सुन्दर लगेंगी यहाँ तक कि मेरे बीमार होते ही दोनों का मुँह उतर जाता। दादी तो किसी तरह खुद को संभाल लेती पर पापा तो मेरे ठीक होने तक खुद ही बीमार लगने लगते थे। मुझे खुद अपने भाग्य से ईर्ष्या होने लगती थी। इतना प्यार, इतनी चिंता, मैंने किसी भी घर में नहीं देखी थी शायद दादी और पापा दोनों ही माँ की कमी पूरी करते-करते माँ बन गए थे। ..

जैसे जैसे शादी के दिन नज़दीक आ रहे थे घर में मेहमानों का तांता लगने लगा था। दादी की ख़ुशी तो देखते ही बनती थी। अपनी संदूकची खोल दिन भर सभी को कुछ ना कुछ दिखाया ही करती थी। जब सब औरतें उनके जेवरों को देखकर ठगी सी रह जाती और छूकर देखने की विनती करती तो दादी की आँखों की चमक देखते ही बनती थी।

पापा कई बार दबे स्वर में दादी से कह चुके थे कि सोने के गहनें सबको नहीं दिखाना चाहिए पर दादी कहती -“अरे, लोग भी तो जाने कि पहले के ज़माने में क्या शानदार गहने बनते थे। आजकल तो ये औरतें सूती धागे के समान महीन सोना चाँदी पहनकर भी इठलाती घूमती है।”

पापा हमेषा की तरह चुप हो जाते और वहाँ से चल देते।

आजकल तो दादी के कमरें की रौनक देखते ही बनती थी। दिन रात वहाँ महिलाओं का जमघट लगा रहता था।

शादी के एक दिन पहले मैं दादी के साथ बैठी बातें कर रही थी कि सभी मेहमानों के इधर उधर होने के बाद पापा कमरे में आए और दादी से जाकर धीरे से कहा – “तुम सोने के गहनों को जो सारे समय दिखाया करती हो, यह सही नहीं है। अगर कोई एकाध जेवर भी गायब कर देगा तो हम किसी से पूछ भी नहीं पाएंगे क्योंकि सभी हमारे रिश्तेदार है”।

“तू तो बड़ा भोला है। अरे लड़के वाले भी तो इसी गाँव में रहते है। जरा उन तक भी तो खबर पहुँचे कि हम भी खानदानी रईस है।”

पापा ने दादी का जवाब सुनकर अपना सिर धुन लिया और वह कुछ कहते इससे पहले ही दादी बोली – “और तू क्या समझता है, मैंने गहने संभाल कर नहीं रखे है। ये देख चाभी, चौबीसों घंटे इसे मैं इस रजाई के नीचे रखती हूँ”।

दादी ने यह कहते हुए रजाई पलट दी। पीतल की चाभी, रजाई के नीचे माचिस की डिब्बी के बगल में पड़ी हुई थी।

तभी दादी बोली – “पर… पर…”

“क्या हुआ?” पापा ने दादी को पकड़ते हुए पूछा।

“सामने वाली दीवार के पास संदूकची नहीं है” दादी ने हकलाते हुए कहा।

पापा उनके कंधे पर हाथ रखते हुए बोले – “तुम बिलकुल परेशान मत हो। इतनी बड़ी संदूकची उठाकर कोई नहीं ले जाएगा”।

मैंने पापा और दादी की ओर देखा और पलंग के नीचे झुककर संदूकची ढूंढने लगे। दस बाई दस के कमरे में, वे दोनों बार बार पलंग के नीचे झुककर देख रहे थे और वहाँ पर कोई अलमारी भी नहीं थी जिसमें ढूंढ कर वे तसल्ली कर लेते।

पापा तो जैसे पागल हो गए थे। वह चादर और रजाई उठाकर संदूकची ऐसे ढूंढ रहे थे, मानों कोई सुई ढूंढ रहे हो।

पर दादी समझ गई थी कि उनके सारे गहने जा चुके थे। वह मुझे सूनी आँखों से ताकने लगी।

पापा वहीँ ज़मीन पर पसर गए।

मेरा दिल किसी अनहोनी आशंका से ज़ोरों से धड़क रहा था। आने वाली ज़िंदगी का अँधेरा मुझे साफ़ नज़र आ रहा था। मुझे लगा था कि दादी दहाड़ें मारकर रोयेंगी, घर भर में तूफ़ान मचा देंगी सबकी तलाशी लेने को कहेंगी पर दादी तो जैसे पत्थर की बन गई थी।

पापा ज़मीन पर बैठे फूट फूट कर रो रहे थे।

दादी ने पथराई आँखों से पापा को देखा और कहा – “इसे बिना गहनों के कैसे विदा करेंगे। कल हम पर पूरा गाँव हँसेगा”।

पापा ने अपना चेहरा हथेलियों से ढक लिया। तभी मेरी नज़र चाचू पर पड़ी जो दरवाज़ा पकड़कर खड़े हुए थे। उनके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ रही थी।

मेरे मुँह से अचानक निकल गया – “चाचू”

पापा ने तुरंत अपने चेहरे से हाथ हटा लिए और चाचू की तरफ बढ़ा दिए।

चाचू ने तुरंत दरवाज़े की कुंडी अंदर से लगा ली और पापा के हाथ पकड़ कर ज़मीन पर ही बैठ गए।

पापा ने चाचू के सीने में अपना सिर रख दिया।

पापा बच्चों की तरह हिलक हिलक कर रो रहे थे और चाचू उनके सिर पर हाथ फेरते हुए अपनी नम आँखों को पोंछ रहे थे।

तभी पापा बोले – “किसी को भी नहीं पता चलना चाहिए कि गहनें चोरी हो गए है। मैं कल सुबह ही शहर जाकर नकली गहने ले आऊंगा।”

दादी धीमे से बुदबुदाई – “ये सारी दुर्गत मेरी वजह से ही हो रही है। मैं ऊपर जाकर इसकी माँ को क्या मुँह दिखाउंगी”!

तभी चाचू बोले – “सुबह कितने बजे की बस पकड़ोगे?”

पापा ने ज़मीन पर ही लेटते हुए कहा – “दस बजे की”

चाचू ने पापा का सिर सहलाया और उठकर खड़े हो गए। दरवाज़े की कुंडी खोलते हुए वह तेजी से बाहर निकल गए।

पर कुछ ही पलों बाद वह वापस आये और मेरे दोनों हाथ पकड़ते हुए बोले – “हौसला रखना”।

ना चाहते हुए भी मेरे दो बूँद आँसूं उनकी हथेली पर गिर गए।

“मोती ऐसे ही नहीं लुटाते, पगली…” कहते हुए मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए वह चले गए।

उस रात पापा, मैं और दादी कमरे को ताकते हुए ना जाने कब तक बैठे रहे और पता नहीं कब वहीँ फ़र्श पर सो गए।

चाची, ताई और मामी के साथ-साथ सभी समझ रहे थे कि मेरे विदा होने के कारण पापा और दादी बहुत दुखी है और इसलिए किसी ने उनसे कुछ भी नहीं पूछा।

जब मेरी आखँ खुली तो पापा को दादी के बगल में दीवार के सहारे खड़ा पाया।

मैंने घड़ी पर नज़र डाली, सुबह के आठ बज रहे थे।

मैं पापा को चाय के लिए पूछती, इससे पहले ही चाचू कमरे के अंदर आ गए और दादी के पास जाकर बैठ गए।

दादी सकपका गई और चाचू को गौर से देखने लगी।

तब तक मैं और पापा भी दादी के पास पहुँच गए। चाचू ने सफ़ेद झोले से, पीले रंग के कपड़े की पोटली निकाली और दादी की गोदी में रख दी।

दादी ने पोटली देखते हुए निराशापूर्ण शब्दों में पूछा – “क्या है इसमें”?

पापा और मैं भी कुछ समझ नहीं पा रहे थे। तभी चाचू ने पोटली की एक के बाद एक करके सारी गाँठे खोल दी।

पोटली खुलते ही ढेर सारे सोने के ढेर सारे जेवर दादी की साड़ी पर बिख़र गए।

पापा बोले – “ये गहने तो भाभी के है और…”

“एक शब्द भी आगे नहीं बोलना। आज मेरी बेटी का ब्याह है और मेरे ज़िंदा रहते वह कभी नकली गहनें नहीं पहनेगी”।

पापा का गला रूँध गया। वह चाहकर भी आगे कुछ नहीं कह सके। आँसूं पोंछते हुए उन्होंने मुझे अपने सीने से लगा लिया।

चाचू दादी का हाथ पकड़ते हुए बोले – “इन्हें लेने से मना मत करना माँ… इनकी कोई जात नहीं होती”।

दादी का चेहरा पीला पड़ गया।

चाचू दादी के सामने सिर झुकाये बैठे थे तभी दादी दोनों हाथ जोड़कर चाचू से बोली – “भगवान् के लिए मुझे मेरी ही नज़रों में और ना गिराओ, बेटा”।

चाचू ने दादी के हाथ पकड़कर माथे से लगा लिए और दादी उनके गले लग कर बुक्का फाड़कर रो पड़ी कहना ना होगा, मेरी शादी बहुत धूमधाम से हुई। दादी ने पूरी शादी में चाचू का हाथ पल भर भी नहीं छोड़ा और सभी मेहमानों से उन्होंने चाचू को अपना दूसरा बेटा कहकर मिलवाया। ससुराल आने के बाद भी मुझे पता चलता रहता है कि अब तीनों की बैठक हफ्ते के छहों दिन खूब जमती है और रविवार को मेरे पति के साथ साथ मेरे सास-ससुर भी मेरे मायके पहुँच जाते है।

दादी कभी कभी चिढ़ाते हुए कहती – “सिर्फ़ बिटिया को भेजने की बात हुई थी, पता नहीं था कि पूरी बारात ही साथ आ जाया करेगी”।

उनकी बात पर सब खिलखिलाकर हँस पड़ते और मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करती कि दुनियाँ में कोई भी किसी के बारें में सिर्फ़ उसके नाम से ही अपने मन में कोई धारणा ना बनाये। क्या पता जिन्हें हम गैर समझते है वे हमारे खून के रिश्तों से भी ज़्यादा पवित्र रिश्ते निकल जाए…

~ मंजरी शुक्ला

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