महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी: पुनर्जन्म

पुनर्जन्म: महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी

पुनर्जन्म: मंजरी शुक्ला [Page III]

मुझे अपनी हालत पर बड़ी शर्म भी आई कि पता नहीं कितनी देर से अस्त व्यस्त साड़ी में मिट्टी में पड़ी हुई हूँ। पर ऐसा लग रहा था जैसे अरविन्द जी मेरे मनोभावों को पढ़ रहे थे। उन्होंने तुरंत मुझे सहारा देकर उठाया और मुझे मेरे घर छोड़ने चल दिए। जब मैं घर पहुँची तो देखा सब के चेहरे पर एक अजीब तरह के नाराज़गी के भाव थे, जो शायद अब तक चाय नहीं मिलने की वजह से गुस्से और खीज में बदल चुके थे। जहाँ नाराज़ मुझे होना चाहिए था कि कालेज में पढ़ने वाली मेरी इतनी बड़ी लड़की चाय नहीं बनने के कारण बैठी मुझे घूर रही हैं, बेटा लॉन में बैठा हुआ मोबाइल से किसी से हँस कर बात कर रहा हैं और मुझे देखकर पीठ घुमाकर बैठ गया वहाँ मैं अपराधी की तरह बेबस सी किसी तरह गिरती पड़ती बाहर के दरवाजे पर खड़ी ही हुई थी कि अचानक अरविन्द जी ने मेरा हाथ थाम लिया और मुझे अंदर की तरफ ले जाने लगे। मैंने आज पहले बार उनकी तरफ़ गौर से देखा। ऐसा लग रहा था कि उन्हें पहले भी कहीं देखा हैं, पर बहुत याद आने के बाद भी सिर्फ एक धुँधली सी तस्वीर ही बन रही थी। फिर लगा शायद मेरे मन का भ्रम हैं। गोरा चिट्टा चेहरा जिस पर हलके गुलाबी रंग ने अपना आधिपत्य जमा हुआ था। गहरी नीली आँखें, जो एकटक मुझे देख रही थी। शायद उन नज़रों में कुछ ऐसा था जो हर औरत बिना कुछ कहे सुने भी बखूबी समझ लेती हैं, मैंने अचकचाकर सर नीचे आकर लिया। मेरे घर वालों का तो हिसाब किताब ही निराला था, सबको यह तो दिख रहा था कि कोई गैर आदमी मुझे सहारा देकर ला रहा हैं तो जरूर मेरे साथ कोई दुर्घटना घटी होगी पर सब वहीँ पर अपनी जगह पर तटस्थ बैठकर हम दोनों को अजीब नज़रों से घूरते रहे। मुझे तो अपमान सहने की आदत हो चली थी पर अरविन्द जी की हालत बहुत अजीब हो रही थी उन्हें समझ ही नहीं आ रहा था कि वो मुझे गेट पर ही छोड़ दे या अंदर ले चले। क्योंकि कोई भी मुझे सहारा देने के लिए आ ही नहीं रहा था। रही सही कसर मेरी सास ने पूरी कर दी जिन्होंने हम दोनों को देखते ही अपनी तुलसी की माला के मनके घुमाते हुए “राम-राम” शब्द का उच्चारण शुरू कर दिया जैसे मैं कहीं से मुहँ में कालिख पुतवा कर लौट रही हूँ।

खैर मैंने धीमे से अरविन्द जी से कहा – “आप जाइए, मैं बिलकुल ठीक हूँ। अगर यहाँ गिरूँगी तो ये सब लोग झक मारकर मुझे अंदर ले ही जाएँगे आखिर बेचारों को निर्जला व्रत थोड़े ही ना रखने हैं।”

यह सुनकर अरविन्द के गुलाबी चेहरें पर जैसे काले बादल तेजी से मंडरा उठे और अचानक बिना कुछ कहे पलट कर चले गए। मैंने अपने घर वालों की तरफ देखा और फिर दूर जाते हुए अरविन्द जी की तरफ़, जो अपने कुर्ते की बाजू से अपने आँसूं पोंछते हुए चले जा रहे थे। मेरा मन भीग गया। बीस सालों में पहली बार किसी को अपने लिए दुखी होता देखा। मन हुआ कि दौड़कर उनके पास चली जाऊं, पर किसी तरह भारी मन से घर के अंदर दाखिल हुई और निढाल होकर अपने बिस्तर पर जा कर लेट गई। एक के बाद एक करके सब लोग मेरे कमरे में आए केवल यह देखने के लिए कि मैं नाश्ता बनाने के लायक हूँ भी या नहीं और जब पूरी तरह से तसल्ली हो गई कि मैं उठ नहीं सकती तो उन लोगों ने बिना मेरी तकलीफ़ या सुबह की घटना के बारें में पूछे बैगैर आपस में डिस्कस करके होटल से नाश्ता मँगवा लिया।

पति का दबा हुआ स्वर सुनाई दिया – “अमृता को भी दे आते हैं कमरे में नाश्ता।”

सास दहाड़ी – “देखा नहीं, कुछ उल्टा सीधा खाने से ही उसकी तबियत बिगड़ी है। कोई जरुरत नहीं हैं कुछ खिलाने पिलाने की। अपने आप ही ठीक हो जायेगी।”

मैं दम साधे सब सुन रही थी, लगा ये लोग तो गैर हैं, पर बच्चे तो मेरे कोख जाए हैं, वो जरूर मुझे भूखे नहीं रहने देंगे। पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। मेरी आँसुओं से भरी आखें और कान दरवाजे की तरफ़ ही लगे हुए थे।

और उसके बाद सबकी मिली जुली हँसी और ठहाकों के बीच छूरी-काँटों की आवाज़े ही आती रही।

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