महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी: पुनर्जन्म

पुनर्जन्म: महिला दिवस के उपलक्ष में एक कहानी

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अब आखिर इस उमर में जाकर मुझे समझ में आया आखिर प्यार से तो बाईक नहीं आती और ना ही महँगे मोबाइल फ़ोन, जिनका तगड़ा बिल उनके पापा बिना किसी ना नुकुर के मुस्कुराते हुए भर दिया करते थे। आस पड़ोस में देखती तो औरतें हमेशा अपने पति की बात करती कि वो उनके साथ कहाँ गई या कौन सी फ़िल्म देखी या फिर कहाँ खाना खाया बस मुझे इसी बात से बहुत कोफ़्त होती हैं कि सिवा बच्चों और पति की बातों के अलावा लगता हैं दिमाग में भूसा भरा हुआ हैं जो और कोई दूसरी बात सूझती ही नहीं। दिमाग भी बेचारा क्या करे उसे जैसा फीड करेंगे वो तो वैसे ही चलेगा ना… कई बार थोड़ी कोशिश की मैंने राजनीति या फिर कुछ इधर उधर की बात करने की, तो उस पर सब मुझ पर भूखी शेरनियों सी टूट पड़ी और चीखते हुए बोली – “हमारे ये हैं ना राजनीति के बारे में बात करने के लिए अब अगर हम महिलाएँ भी यही सब बात करने लग जाए तो भला क्या अंतर रह जाएगा आदमी और औरत की बातों में। …तो उस दिन मुझे पहली बार जाकर पता चला कि आदमी और औरत की बातें भी अलग अलग होती हैं जिन्हें औरतों ने खुद ही बाँट कर अलग कर लिया हैं। खैर मेरे पास तो पति के बारे में बात करने का कुछ होता नहीं था और ना ही बच्चों के दिन भर का क्रियालकलाप बताने के लिए …क्योंकि उन्हें मुझसे सिर्फ सुबह, दोपहर और रात के खाने का मतलब था इससे ज्यादा कुछ नहीं …तो मैंने खुद को अपने ही अंदर और ज्यादा समेट लिया। उसी वक़्त मेरी अरविन्द से मुलाकात हुई। सुबह पार्क में कई बार उन्हें मैंने अपनी तरफ़ एकटक देखते हुए पाया था और औरतों की मानसिकता के अनुरूप उन्हें छिछोरा ही समझा था जो पार्क में घूमने के बहाने अपनी बीवियों को घर पर छोड़ आते हैं और खुद सुबह सुबह की ताज़ी हवा में औरतों को निहारते हैं। पर कुछ दिनों बाद ही की घटना ने मेरी ये धारणा उनके प्रति बिलकुल बदल दी। रोज की तरह इतवार की सुबह भी अपने पति की चाय बनाकर मैं जैसे ही पार्क की ओर रवाना हुई, तो मुझे ऐसा लगा कि मेरा सर घूम रहा हैं। मन हुआ कि वापस घर लौट चलू, पर दूसरे ही पल ख्याल आया कि अगर एक घंटे घर में रह गई तो अभी से ही सबके मनपसंद खाने की फरमाइश आने लगेगी और मैं रात तक काम करते करते अधमरी हो जाउंगी। अगर कोई दो बोल प्रेम के बोलकर अपनी फरमाइश कहे तो रात तक एक पैर पर दौड़ दौड़ कर सबके काम करू पर यहाँ तो मामला ही दूसरा हैं। एक के बाद एक करके सब चौके में आते हैं और अपनी पसंद का नाश्ता बताकर ऐसे बाहर चले जाते हैं जैसे किसी खाने वाली बाई से बातकर रहे हो। अगर रोना चाहू तो मेरे पास कोई भी कन्धा नहीं।

हारकर मैंने अपने शरीर को समझाया कि जब घर से ज्यादा सुख तुझे पार्क की खुली हवा में मिल रहा हैं तो क्यों यही सड़ना चाहता हैं, तब कही मेरे पैर बड़ी अनिच्छा से मेरी ख़ुशी की खातिर धीमे से पार्क की ओर मुड़े। पार्क में घुसते ही अरविन्द जी से सामना हुआ जो मिट्टी में लथपथ पड़े बच्चे का नल के पानी से बड़े ही प्यार से मुहँ धुला रहे थे। उन्होंने मुझे देखते ही हमेशा की तरह अपनी चिरपरिचित मुस्कान बिखेर दी पर मैंने यह देखकर खुद को और ज्यादा तटस्थ बना लिया मानों मुझसे ज्यादा खडूस इस पूरी दुनियाँ में और कोई दूसरा ना हो। पर अचानक सारा पार्क और उसमें खिले हुए सैकड़ो रंगबिरंगे फूल और वहाँ हँसते मुस्कुराते चेहरे मुझे धुँधले नज़र आने लगे। मैंने अपने आप को संभालने की बहुत कोशिश की पर ना चाहते हुए भड़ाक की आवाज़ के साथ मैं जमीन पर गिर पड़ी। उसके बाद क्या हुआ मुझे नहीं पता पर अचानक ही, आँखें खोलिए, आँखें खोलिए, जैसी आवाज़ें मेरे कानों में पड़ने लगी और मैं बहुत हिम्मत करके उन आवाज़ों के बारीक सिरे को पकड़कर अँधेरे को चीरते हुए आगे की तरफ गिरते पड़ते हुए बढ़ने लगी। जैसे ही मुझे पुकारना बंद हो जाता तो मैं मूर्ति सी उसी काले घुप अँधेरे में डरकर बिना साँस लिए चुपचाप खड़ी हो जाती मानों वो आवाज़ें शब्द ना होकर रौशनी की किरण हो जो मुझे किसी अँधेरी सुरंग से रौशनी में लाने का प्रयास कर रही हो। तभी ऐसा लगा कि मैं झरने के नीचे पहुँच गई और वहाँ पर ठंडी-ठंडी पानी की बूँदें जैसे मुझमें प्राण फूँकने का काम कर रही हो और अचानक मेरी आखें खुल गई। देखा तो वहाँ मजमा लगा हुआ था और सबके चेहरों पर घबराहट और परेशानी के भाव स्पष्ट रूप से नज़र आ रहे थे जिनमें सबसे ज्यादा परेशान अरविन्द जी लग रहे थे ऐसा लग रहा था मानों वो अपने आँसूं किसी तरह बड़ी मुश्किल से ज़ब्त करके बैठे हुए है।

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