लाइसेंस - सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो की लोकप्रिय कहानी हिंदी में: लाइसेंस

सआदत हसन मंटो की लोकप्रिय कहानी हिंदी में: लाइसेंस [4]

शुरू-शुरू में तो सवारियां नीति के तांगे में बैठने से झिझकीं, मगर चंद ही दिनों में उनकी यह झिझक दूर हो गई। अब एक भी मिनट के लिए नीति का तांगा ख़ाली ना रहता। इधर एक सवारी उतरती, उधर दूसरी सवारी बैठ जाती। कभी-कभी तो सवारियां आपस में लड़ने-झगड़ने भी लग जातीं कि किस सवारी ने पहले नीति को बुलाया था। नीति को ख़ूब आमदन हो रही थी।

उसने महसूस किया कि तांगा दिनभर चलता रहता है, न उसको और न अब्बू के चन्नी को सुस्ताने का कोई वक़्त मिलता है… उसने सोच-समझकर तांगा जोतने के औक़ात मुक़र्रर कर लिए। वह सुबह सात बजे से बारह बजे तक और दोपहर दो बजे से शाम छह बजे तक तांगा जोतने लगी। अब आराम भी मिलने लगा, आमदन तो थी ही।

वह जानती थी कि बेशतर लोग सिर्फ़ उसकी क़ुर्बत हासिल करने के लिए उसके तांगे में बैठते हैं। वह बेमतलब, बेमक़सद उसे तांगा इधर-उधर घुमाने-फिराने को कहते हैं। तांगे में बैठकर आपस में गंदे-गंदे मज़ाक करते हैं। उसको सुनाने के लिए अजीब-अजीब बातें करते हैं।

वह अक्सर महसूस करती कि वह ख़ुद को नहीं बेचती लेकिन लोग चुपके-चुपके उसे ख़रीद लेते हैं। वह यह भी जानती थी कि शहर के सारे कोचवान उसको बुरा समझते हैं। इन तमाम एहसासात के बावजूद वह मुज़्तरिब नहीं थी। अपनी एतिमादी के बायस वह पुरसुकून थी।

एक दिन शहर की कमेटी ने उसको बुलाया और कहा, “तुम तांगा नहीं चला सकती।”

उसने पूछा, “जनाब, मैं तांगा क्यों नहीं चला सकती?”

“लाइसेंस के बग़ैर तुम तांगा नहीं चला सकती। अगर तुमने लाइसेंस के बग़ैर तांगा चलाया तो तुम्हारा तांगा-घोड़ा ज़ब्त कर लिया जाएगा, और औरत को तांगा चलाने का लाइसेंस नहीं मिल सकता…. शहर की कमेटी ने जवाब दिया।”

उसने कहा, “हुज़ूर, आप मेरा तांगा-घोड़ा ज़ब्त कर लें, पर मुझे यह बताएं कि औरत तांगा क्यों नहीं चला सकती… औरतें चर्ख़ा चलाकर अपना पेट पाल सकती हैं… औरतें टोकरी ढोकर रोज़ी कमा सकती हैं, औरतें कोयले चुन-चुनकर अपनी रोटी पैदा कर सकती हैं… मैं तांगा चलाकर पेट क्यों नहीं भर सकती?” मुझे और कोई काम करना आता ही नहीं। तांगा-घोड़ा मेरे ख़ाविंद का है, मैं उसे क्यों नहीं चला सकती? हुज़ूर, आप मुझ पर रहम करें….आप मुझे मेहनत-मज़दूरी से क्यों रोकते हैं? मैं अपना गुज़ारा कैसे करूंगी… बताइए ना मुझे बताइए?

शहर की कमेटी ने जवाब दिया, “जाओ, बाज़ार में जाकर बैठ जाओ…वहां कमाई ज़्यादा है।”

नीति के अंदर जो नीति थी, जलकर राख हो गई। उसने हौले-से “अच्छा जी” कहा और चली गई।

उसने औने-पौने दाम पर तांगा-घोड़ा बेचा और सीधी अब्बू की क़ब्र पर गई। एक लहज़े के लिए वह ख़ामोश खड़ी रही। उसकी आंखें बिल्कुल ख़ुश्क़ थीं, जैसे बारिश के बाद चिलचिलाती धूप ने सारी नमी चूस ली हो।

फिर उसके भिंचे हुए होंठ वा हुए और वह अब्बू से मुख़ातिब हुई, “अब्बू, आज तेरी नीति कमेटी के दफ़्तर में मर गई”।

दूसरे दिन उसने शहर की कमिटी के दफ़्तर में अर्ज़ी दी।

और उसको अपना जिस्म बेचने का लाइसेंस मिल गया।

सआदत हसन मंटो

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