लाइसेंस - सआदत हसन मंटो

सआदत हसन मंटो की लोकप्रिय कहानी हिंदी में: लाइसेंस

सआदत हसन मंटो की लोकप्रिय कहानी हिंदी में: लाइसेंस [3]

दोनों जवानी की मस्तियों में ग़र्क़ थे… दोनों को गाते, हंसते सैरें करते और एक-दूसरे की बलाएं लेते हुए एक महीना ही गुज़र पाया था कि दफ़अतन एक रोज़ पुलिस ने अब्बू को गिरफ़्तार कर लिया, नीति भी पकड़ी गई।

अब्बू पर अग़वा का मुक़द्दमा चला कि नीति बालिग़ नहीं थी, नीति की अदालत में साबितकदम रहने के बावजूद अब्बू को दो बरस की सज़ा हो गई।

जब नीति ने अदालत का हुक़्म सुना तो वह अब्बू के साथ लिपट गई। उसने रोते हुए सिर्फ इतना कहा: “मैं अपमे मां-बाप के साथ नहीं जाऊंगी… तेरे घर में बैठकर तेरा इंतज़ार करूंगी।”

अब्बू ने उसकी पीठ पर थपकी दी, “जीती रह… मैंने तांगा-घोड़ा दीने के सुपुर्द किया हुआ है, उससे किराया वसूल करती रहना।”

नीति के मां-बाप ने बहुत ज़ोर लगाया, मगर वह उनके साथ न गई। थक हारकर उन्होंने नीति को उसके हाल पर छोड़ दिया।

नीति अकेले अब्बू के घर में रहने लगी। हर शाम दीना उसे पांच रुपए दे जाता, जो उसकी ज़रूरत के लिए काफ़ी थे। इसके अलावा कुछ थोड़े-से रुपए उसने जमा कर रखे थे।

हफ़्ते में एक बार अब्बू से उसकी मुलाक़ात जेल में होती, यह मुलाक़ात बहुत मुख़्तसर होती।

उसके पास जितनी जमा-पूंजी थी। वह उसने अब्बू को जेल में आसाइशें (सुख-सुविधा) पहुंचाने में सफ़ (ख़र्च) कर दी। एक मुलाक़ात में अब्बू ने उसके बुच्चे कानों की तरफ़ देखा और पूछा, “तेरी बालियां कहां गईं नीति?”

वह संतरी की तरफ़ देखकर मुस्कराई, “गुम हो गई कहीं।”

अब्बू ने क़दरे-ग़ुस्से होकर होकर कहा, “तू मेरा इतना ख़याल ना रखा कर… मैं जैसा भी हूं, ठीक हूं।”

उसने कुछ ना कहा और मुस्कराती हुई चली आई कि मुलाक़ात का वक़्त पूरा हो चुका था। घर पहुंचकर वह बहुत रोई, घंटों आंसू बहाती रही। उस मुलाक़ात में उसने बड़े ज़ब्त से काम लिया था और मुस्कराती रही थी। उसने महसूस किया था कि अब्बू की सेहत बुरी तरह गिर चुकी है। वह गिरांडील अब्बू घुल-घुलकर आधा रह गया है, वह उसे पहचान न सकी थी।

उसने सोचा कि अब्बू को मेरा ग़म खा रहा है। जुदाई ने अब्बू की यह हालत कर दी है।

ग़म, जुदाई, जेल, जेल का घटिया खाना, जेल की कड़ी मशक़्क़त, इतना कुछ तो उसे मालूम था, यह मालूम नहीं था कि दिक़ का मर्ज़ अब्बू को विरसे में मिला है।

अब्बू का बाप अब्बू से कहीं ज़्यादा गिरांडील था, लेकिन दिक़ ने उसे चंद हफ़्तों में क़ब्र के अंदर पहुंचा दिया था। अब्बू का बड़ा भाई कड़ियल जवान था, मगर ऐन जवानी में इस मर्ज़ ने उसे दबोच लिया था। अब्बू इस हक़ीक़त से ग़ाफ़िल था।

जब वह जेल के हस्पताल में आख़िरी सांसें ले रहा था, उसने अफसोस भरे लहज़े में नीति से कहा, “मुझे मालूम होता कि मैं इतनी जल्दी मर जाऊंगा तो कसम वह्दहु ला-शरीक की, तुझे कभी अपनी बीवी न बनाता, मैंने तेरे साथ ज़ुल्म किया है, मुझे साफ़ कर दे….देख, मेरी एक ही निशानी है, मेरा तांगा-घोड़ा, उसका ख़याल रखना…और चन्नी बेटे के सिर पर हाथ फेरकर कहना कि अब्बू ने प्यार भेजा है।”

अब्बू मर गया, नीति का सबकुछ मर गया, इतनी जल्दी सबकुछ मर गया।

नीति हौसलेवाली औरत थी, उसने सदमा बर्दाश्त कर ही लिया। वह तमाम दिन घर में तने-तन्हा पड़ी रहती।

शाम को दीना आता, पांच रुपए उसके हवाले करता, उसे दम दिलासा देता और कहता, “भाभी, अल्लाह मियां के आगे किसी की पेश नहीं चलती…अब्बू मेरा दोस्त ही नहीं, भाई भी था। मुझसे जो हो सकेगा, ख़ुदा के हुक्म से ज़रूर करूंगा।”

जब नीति की इद्दत के दिन पूरे हो गए तो एक दिन दीने ने साफ़-साफ़ लफ्ज़ों में नीति से कहा कि वह उससे शादी कर ले…नीति के जी में आई कि वह दीने को धक्के मारकर बाहर निकाल दे, मगर उसने सिर्फ इतना कहा, “भाई, मुझे शादी नहीं करनी।”

उसी दिन से दीने के रवैये में फ़र्क़ आ गया। वह पहने बिला नाग़ा शाम को पांच रुपए दे जाता था। अब वह कभी चार रुपए देने लगा, कभी तीन कि बहुत मंदा है, फिर वह दो-दो, तीन-तीन दिन ग़ायब रहने लगा। बहाना यह कि बीमार था, इसलिए तांगा जोत न सका, तांगे का कोई कल-पुर्ज़ा ख़राब हो गया था, मरम्मत के चक्कर में सारा दिन बर्बाद हो गया।

जब पानी सिर से निकल गया तो नीति ने दीने से कहा, “भाई दीने, अब तुम तक़लीफ़ ना करो…तांगा-घोड़ा मेरे हवाले कर दो।”

कई दिन तक सोचते रहने के बाद नीति ने तांगा-घोड़ा अब्बू के एक और गहरे दोस्त मांझे को सिपुर्द कर दिया। चंद महीने बाद मांझे ने भी शादी की दरख़्वास्त की। नीति ने इनकार किया तो मांझे की आंखें भी बदल गईं। थक-हारकर नीति ने तांगा-घोड़ा एक अनजाने कोचवान के हवाले कर दिया। एक शाम वह अनजाना कोचवान पैसे देने आया तो नशे में धुत था। उसने ड्योढ़ी में क़दम रखते ही नीति पर हाथ डालने की कोशिश की। नीति से उसको खरी-खरी सुनाई और घर से बाहर निकाल दिया।

नीति अजीब उलझन में गिरफ़्तार थी।

आठ-दस रोज़ से तांगा-घोड़ा बेकार तबेले में पड़ा हुआ था। घास-दाने का ख़र्च एक तरफ़ तो तबेले का किराया दूसरी तरफ़। कोचवान थे कि कोई शादी की दरख़्वास्त करता था, कोई उसकी इस्मत पर हाथ डालने की कोशिश करता था और कोई पैसे मार लेता था।

नीति सोच-सोचकर पागल हो गई। एक दिन बैठे-बैठे उसे ख़याल आया, “क्यों ना तांगा मैं आप ही जोतूं, आप ही चलाऊं।” जब वह अब्बू के साथ घूमने के लिए निकला करती थी तो तांगा वह ख़ुद ही चलाया करती थी, शहर के रास्तों से भी वह वाक़िफ़ थी।

उसने सोचा, “लोग क्या कहेंगे?”

फिर ख़ुद ही उसने अपने सवाल का जवाब दिया, “क्या औरतें मेहनत-मज़दूरी नहीं करतीं? दफ़्तरों में जाने वाली औरतें… कोयला चुननेवालियां… घरों में बैठकर भी तो हज़ारों औरतें काम करती हैं… हरज की क्या है, फिर पेट तो किसी हीले से पालना ही है।”

उसने कुछ दिन सोच-विचार किया और आख़िर में फैसला कर लिया कि तांगा वह ख़ुद चलाएगी… उसको ख़ुद पर पूरा एतिमाद (यक़ीन) था।

एक दिन अल्लाह का नाम लेकर वह तबेले पहुंच गई।

उसने पीतल का साज़ो-सामान चमकाया, घोड़े को नहलाया-धुलाया और ख़ूब प्यार किया। तांगा जोतने लगी तो सारे कोचवान हक्का-बक्का रह गए। अभी सारे कोचवान हैरतज़दा ही थे कि वह अब्बू से दिल ही दिल में प्यार की बातें करती हुई तबेले से बाहर निकल गई। उसके हाथ रवां थे, जैसे वह तांगा चलाने के फ़न पर हावी हो।

शहर में तहलका बरपा हो गया कि एक ख़ूबसूरत औरत तांगा चला रही है, हर जगह इसी बात का चर्चा था। लोग सुनते थे और उस वक़्त का इंतज़ार करते थे, जब नीति और उसका तांगा सड़क पर से गुज़रेगा।

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