नानाजी देशमुख जीवनी

नानाजी देशमुख जीवनी विद्यार्थियों और बच्चों के लिए

Born: Chandikadas Amritrao Deshmukh 11 October 1916 (Kadoli, Hingoli, Maharashtra, India)
Died: 27 February 2010 (aged 93)
Nationality: Indian
Political party: Bharatiya Jana Sangh
Alma mater: Birla College (BITS Pilani)
Awards: Bharat Ratna (January 2019), Padma Vibhushan (1999)

नानाजी देशमुख का जन्म 11 अक्टूबर सन 1916 को बुधवार के दिन महाराष्ट्र के हिंगोली जिले के एक छोटे से गांव कडोली में हुआ था। इनके पिता का नाम अमृतराव देशमुख था तथा माता का नाम राजाबाई था। नानाजी के दो भाई एवं तीन बहने थीं।

नानाजी जब छोटे थे तभी इनके माता-पिता का देहांत हो गया। बचपन गरीबी एवं अभाव में बीता। वे बचपन से ही राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की दैनिक शाखा में जाया करते थे। बाल्यकाल में सेवा संस्कार का अंकुर यहीं फूटा। जब वे 9वीं कक्षा में अध्ययनरत थे, उसी समय उनकी मुलाकात संघ के संस्थापक डा. हेडगेवार (Dr. Keshav Baliram Hedgewar) से हुई। डा. साहब इस बालक के कार्यों से बहुत प्रभावित हुए। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी होने पर डा. हेडगेवार ने नानाजी को आगे की पढ़ाई करने के लिए पिलानी जाने का परामर्श दिया तथा कुछ आर्थिक मदद की भी पेशकश की। पर स्वाभिमानी नाना को आर्थिक मदद लेना स्वीकार्य न था। वे किसी से भी किसी तरह की सहायता नहीं लेना चाहते थे। उन्होंने डेढ़ साल तक मेहनत कर पैसा इकट्ठा किया और उसके बाद 1937 में पिलानी गये। पढ़ाई के साथ-साथ निरंतर संघ कार्य में लगे रहे। कई बार आर्थिक अभाव से मुश्किलें पैदा होती थीं परन्तु नानाजी कठोर श्रम करते ताकि उन्हें किसी से मदद न लेनी पड़े। सन् 1940 में उन्होंने नागपुर से संघ शिक्षा वर्ग का प्रथम वर्ष पूरा किया। उसी साल डाक्टर साहब का निधन हो गया। फिर बाबा साहब आप्टे के निर्देशन पर नानाजी आगरा में संघ का कार्य देखने लगे।

स्थानीय कारीगरों द्वारा बनाया मझगंवा कृषि विज्ञान केन्द्र का अतिथिगृह

ग्रामोदय से राष्ट्रोदय के अभिनव प्रयोग के लिए नानाजी ने 1996 में स्नातक युवा दम्पत्तियों से पांच वर्ष का समय देने का आह्वान किया। पति-पत्नी दोनों कम से कम स्नातक हों, आयु 35 वर्ष से कम हो तथा दो से अधिक बच्चे न हों। इस आह्वान पर दूर-दूर के प्रदेशों से प्रतिवर्ष ऐसे दम्पत्ति चित्रकूट पहुंचने लगे। चयनित दम्पत्तियों को 15 – 20 दिन का प्रशिक्षण दिया जाता है। प्रशिक्षण के दौरान नानाजी का मार्गदर्शन मिलता है। नानाजी उनसे कहते हैं – “राजा की बेटी सीता उस समय की परिस्थितियों में इस क्षेत्र में 11 वर्ष तक रह सकती है, तो आज इतने प्रकार के संसाधनों के सहारे तुम पांच वर्ष क्यों नहीं रह सकतीं?” ये शब्द सुनकर नवदाम्पत्य में बंधी युवतियों में सेवा भाव और गहरा होता है तो कदम अपने सुनहरे शहर एवं घर की तरफ नहीं, सीता की तरह अपने पति के साथ जंगलों-पहाड़ों बीच बसे गांवों की ओर बढ़ते हैं। तब इनको नाम दिया जाता है – समाजशिल्पी दम्पत्ति।

प्रारम्भ में गांव वालों को समझ नहीं आया था कि ये पढ़े-लिखे युवक-युवतियां हमारे गांव की खाक क्यों छान रहे थे? किन्तु कुछ ही महीनों बाद उनके व्यवहार और कार्यों को देखकर गांव वाले अभिभूत हो गए। अनजानापन पारिवारिक निकटता में बदल गया। और यहीं से शुरू हुई उस गांव के विकास की यात्रा। जातिवाद व पार्टीवाद में बंटे लोगों को रचनात्मक कार्यों की ओर मोड़ना बड़ा दुष्कर काम था।

राजनीतिक जीवन

जब आर.एस.एस. से प्रतिबन्ध हटा तो राजनीतिक संगठन के रूप में भारतीय जनसंघ की स्थापना का फैसला हुआ। श्री गुरूजी ने नानाजी को उत्तरप्रदेश में भारतीय जन संघ के महासचिव का प्रभार लेने को कहा। नानाजी के जमीनी कार्य ने उत्तरप्रदेश में पार्टी को स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी। १९५७ तक जनसंघ ने उत्तरप्रदेश के सभी जिलों में अपनी इकाइयाँ खड़ी कर लीं। इस दौरान नानाजी ने पूरे उत्तरप्रदेश का दौरा किया जिसके परिणामस्वरूप जल्द ही भारतीय जनसंघ उत्तर प्रदेश की प्रमुख राजनीतिक शक्ति बन गयी।

उत्तर प्रदेश की बड़ी राजनीतिक हस्ती चन्द्रभानु गुप्त को नानाजी की वजह से तीन बार कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ा। एक बार, राज्यसभा चुनाव में कांग्रेसी नेता और चंद्रभानु के पसंदीदा उम्मीदवार को हराने के लिए उन्होंने रणनीति बनायी। १९५७ में जब गुप्त स्वयं लखनऊ से चुनाव लड़ रहे थे, तो नानाजी ने समाजवादियों के साथ गठबन्धन करके बाबू त्रिलोकी सिंह को बड़ी जीत दिलायी। १९५७ में चन्द्रभानु गुप्त को दूसरी बार हार को मुँह देखना पड़ा।

उत्तर प्रदेश में पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि, अटल बिहारी वाजपेयी के वक्तृत्व और नानाजी के संगठनात्मक कार्यों के कारण भारतीय जनसंघ महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति बन गया। न सिर्फ पार्टी कार्यकर्ताओं से बल्कि विपक्षी दलों के साथ भी नानाजी के सम्बन्ध बहुत अच्छे थे। चन्द्रभानु गुप्त भी, जिन्हें नानाजी के कारण कई बार चुनावों में हार का सामना करना पड़ा था, नानाजी का दिल से सम्मान करते थे और उन्हें प्यार से नाना फड़नवीस कहा करते थे। डॉ॰ राम मनोहर लोहिया से उनके अच्छे सम्बन्धों ने भारतीय राजनीति की दशा और दिशा दोनों ही बदल दी।

निधन एवं देह दान

अपने राज्यसभा के सांसद काल में मिली सांसद निधि का उपयोग उन्होंने इन प्रकल्पों के लिए ही किया। कर्मयोगी नानाजी ने 27 फ़रवरी, 2010 को अपनी कर्मभूमि चित्रकूट में अंतिम सांस ली। उन्होंने देह दान का संकल्प पत्र बहुत पहले ही भर दिया था। अतः देहांत के बाद उनका शरीर आयुर्विज्ञान संस्थान को दान दे दिया।

‘दधीचि देह दान समिति’ के अध्यक्ष आलोक कुमार के अनुसार – ‘नानाजी ने सन् 1997 में इच्छा जताई थी कि उनकी मृत्यु के पश्चात् उनकी देह का उपयोग चिकित्सा शोध कार्य के लिए किया जाए। उनकी इच्छा पर विचार करते 11 अक्टूबर, 1997 को देहदान की एक वसीयत तैयार की गई, जिस पर उन्होंने साक्षी के रूप में श्रीमती कुमुद सिंह तथा हेमंत पाण्डे की उपस्थिति में हस्ताक्षर किए थे। दोनों को नानाजी अपना पुत्र व पुत्री मानते थे। आलोक कुमार ने बताया कि उनके हर अंग का देशहित में उपयोग हो, यही उनकी अंतिम इच्छा थी। कुमार ने कहा कि हमने यह निश्चित किया था कि मृत्यु के पश्चात् नानाजी की देह को दिल्ली स्थित ‘अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान’ में शोध कार्य के लिए दिया जाएगा। उन्होंने भावविह्वल होकर बताया कि नानाजी प्रवास पर रहते थे। ऐसे में मृत्यु होने पर उनकी पार्थिव देह दिल्ली लाने में कोई व्यवधान न हो, इस हेतु नानाजी ने दधीचि देहदान समिति को 11,000 रुपए दिए, उनका कहना था कि मैं हमेशा प्रवास पर रहता हूँ, इसलिए मेरी मृत्यु कहीं भी हो सकती है। यह रुपए मेरी देह को कहीं से भी दिल्ली पहुँचाने की व्यवस्था के लिए हैं।

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