Gopi Krishna Gopesh

गंगा से वोल्गा तक का सफर तय करने वाले कवि /अनुवादक प्रोफेसर गोपी कृष्ण गोपेश जी का जन्म 11 नवम्बर 1925 (पुस्तक में जन्मवर्ष 1923 लिखा है जो ग़लत है) को फ़रीदपुर (पीताम्बरपुर) बरेली, उत्तर प्रदेश में हुआ था और निधन 4 सितम्बर 1974 को। इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल कर गोपेश जी ने शोध में दाखिला लिया, लेकिन वह अपूर्ण ही रह गया। स्नातक होने के बाद युवा कवि के रूप में पहचान। हिन्दी के जाने-माने कवि हरिवंशराय बच्चन जी का गुरु के रूप में गोपेश जी को सानिध्य मिला। भारती और डॉ० जगदीश गुप्त गोपेश जी के परम मित्रों में थे। जीवन के प्रारम्भिक दिनों में गोपेश जी आकाशवाणी इलाहाबाद से जुड़े। फिर यहीं से आकाशवाणी कलकत्ता चले गए। कलकत्ता से मास्को चले गए। वहाँ भी रेडियो मास्को में डेपुटेशन पर। वापस लौटकर आकाशवाणी दिल्ली में कुछ दिन रहे। बाद में इलाहाबाद और दिल्ली विश्वविद्यालयों में रूसी भाषा का अध्यापन किया। |मास्को में रहते हुए गोपेश जी मास्को विश्वविद्यालय में हिन्दी भी पढाते थे और वहाँ के प्रतिष्ठित प्रगति प्रकाशन से भी जुड़ गए थे। गोपेश जी ने अनुवाद के क्षेत्र में अविस्मरणीय कार्य किया। प्रकाशित कृतियाँ ---किरन, धूप की लहरें, सोने की पत्तियाँ, तुम्हारे लिए। पूँजीपति के नाम से जार्ज गिसिंग की कहानियों का हिन्दी अनुवाद, अर्वाचीन और प्राचीन नाटक, कार्य और कारण (अपट्रेंस उपित्स के उपन्यास का अनुवाद) इंसान का नसीबा (शोलोखोव के उपन्यास का अनुवाद), सोवियत संघ का संक्षिप्त इतिहास, दास्तान-ए-नसरुद्दीन (अनातोली कुज्नेत्सोव के उपन्यास का अनुवाद) हिन्दी कविता बदलती दिशाएँ (समीक्षा), रातें रुपहली दिन-सी (फ़्योदर दस्ताएवसकी के उपन्यास का अनुवाद), धीरे बहो दोन रे (शोलोखोव के महाकाव्यात्मक उपन्यास का अनुवाद), वे बेचारे (ला मिजरेबुल्स का अनुवाद) अपूर्ण और अप्रकाशित ।

वर्षा के मेघ कटे: गोपी कृष्ण ‘गोपेश’

वर्षा के मेघ कटे - गोपी कृष्ण 'गोपेश' शब्द चित्र

वर्षा के मेघ कटे – रहे–रहे आसमान बहुत साफ़ हो गया है, वर्षा के मेघ कटे! पेड़ों की छाँव ज़रा और हरी हो गई है, बाग़ में बग़ीचों में और तरी हो गई है – राहों पर मेंढक अब सदा नहीं मिलते हैं पौधों की शाखों पर काँटे तक खिलते हैं चन्दा मुस्काता है; मधुर गीत गाता है – घटे–घटे, …

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रूप के बादल: गोपी कृष्ण ‘गोपेश’

रूप के बादल यहाँ बरसे, कि यह मन हो गया गीला! चाँद–बदली में छिपा तो बहुत भाया ज्यों किसी को फिर किसी का ख्याल आया और, पेड़ों की सघन–छाया हुई काली और, साँस काँपी, प्यार के डर से रूप के बादल यहाँ बरसे… सामने का ताल, जैसे खो गया है दर्द को यह क्या अचानक हो गया है? विहग ने …

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